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13:14, 2 फ़रवरी 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=नीरज गोस्वामी
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संजीदगी, वाबस्तगी, शाइस्तगी, खुद-आगही
आसूदगी, इंसानियत, जिसमें नहीं, क्या आदमी
ये खीरगी, ये दिलबरी, ये कमसिनी, ये नाज़ुकी
दो चार दिन का खेल है, सब कुछ यहाँ पर आरिज़ी
हैवानियत हमको कभी मज़हब ने सिखलाई नहीं
हमको लड़ाता कौन है ? ये सोचना है लाजिमी
हर बार जब दस्तक हुई उठ कर गया, कोई न था
तुझको कसम, मत कर हवा, आशिक से ऐसी दिल्लगी
हो तम घना अवसाद का तब कर दुआ उम्मीद के
जलते रहें दीपक सदा कायम रहे ये रौशनी
पहरे जुबानों पर लगें, हों सोच पर जब बंदिशें
जुम्हूरियत की बात तब लगती है कितनी खोखली
फ़ाक़ाज़दा इंसान को तुम ले चले दैरोहरम
पर सोचिये कर पायेगा ‘नीरज’ वहां वो बंदगी ?
</poem>