1,117 bytes added,
15:05, 22 फ़रवरी 2012 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जिगर मुरादाबादी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
जह्ले-ख़िरद <ref>बुद्धि की मूढ़ता ने </ref>ने दिन ये दिखाए
घट गए इन्साँ बढ़ गए साए
हाय वो क्योंकर दिल बहलाए
ग़म भी जिसको रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के , आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे, लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़<ref>आलौकिकता </ref> और कैसी हक़ीक़त<ref>वास्तविकता </ref>
अपने ही जल्वे अपने ही साए
कारे- ज़माना <ref>संसार को सुन्दर बनाने का का</ref>जितना- जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
</poem>
{{KKMeaning}}