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21:50, 23 फ़रवरी 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=काज़िम जरवली
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{{KKCatGhazal}}
<poem>अभी तक बे ज़मीन-ओ-आसमां हूँ,
मैं इक टूटे सितारे की फुगा हूँ ।
हद-ए-इमकान में जब तू ही तू है,
मुझे इतना बता दे मैं कहाँ हूँ ।
मेरे अशआर मेरा काफ़िला हैं,
मैं खुद अपनी ज़मीनों पर रवां हूँ ।
मैं इन्सां हूँ, मोहब्बत मेरा मसलक,
मैं साज़े दैर हूँ, सोज़े अजां हूँ ।
मेरे अहबाब दरिया फूल झरने,
मैं जिनका हूँ उन्ही के दरमियाँ हूँ ।
शजर हूँ हॉल का अपने मैं अब भी,
न शाखे नौ न बर्गे रफ्त्गा हूँ ।
सहर को जो चहकते हैं परिंदे,
ये मेरे, और मैं इनका राज़दां हूँ ।
शबे ग़म का तसव्वुर है वहीँ तक,
जहाँ तक मैं शरीके दास्ताँ हूँ ।
मेरे शेरों में है थोड़ी सी उर्दू,
मैं "काजिम" इस लिए शीरीं बयां हूँ ।। -- काज़िम जरवली
</poem>