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रफ़्ता रफ़्ता आदमी जब क़ाफ़िलों में बट गया
परदा मंजिल पर पड़ा था जो वो आख़िर हट गया
 
सुबह नो आते ही घर में रोशनी ऐसी हुई
देखते ही देखते सारा अँधेरा छट गया
 
सीखना था ज़िन्दगी से तुझ को नफ़रत का सबक़
प्यार का मंतर न जाने किस लिए तू रट गया
 
टूटना ही था उसे इक रोज़, इस का ग़म नहीं
जितना जोड़ा ज़िन्दगी से रिश्ता उतना घट गया
 
दिन निकलते ही न जाने सुबह की बन कर किरण
कौन मेरे पास से उठ कर ये बे आहट गया
 
फ़ाइज़ ए मंज़िल न तू फिर भी हुआ तो क्या करूँ
मैं कि इक पत्थर था तेरे रास्ते से हट गया
 
ऐ रवि पूछो न हम से क्या बताएँ, किस तरह
रोते हँसते ज़िन्दगी का वक़्त सारा कट गया
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