1,180 bytes added,
08:48, 27 फ़रवरी 2012 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव भरोल
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
यहाँ सच बोलना जोखिम भरा है.
उसे मालूम है, पर बोलता है.
हमें आने नहीं वाला समझ कुछ,
हमारी अक्ल पर पत्थर पड़ा है.
वो टहनी जिस पे खुद बैठे हुए हों,
कभी उसको भी कोई काटता है?
ये कह कर दिल को बहलाएँगे अब ये,
चलो जो भी हुआ अच्छा हुआ है.
तुम्हारे घर से लेकर मेरे घर तक,
ज़रा मुश्किल है, लेकिन रास्ता है!
उतारें यूँ न गुस्सा बर्तनों पर,
हमें भी तो बताएं बात क्या है!
अगर दो जिस्म और इक जान हैं हम,
तो फिर क्यों दरमियाँ ये फासला है?</poem>