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|रचनाकार = ओमप्रकाश यती
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पता है अन्त में किस राह पर संसार जाता है
मगर मन है कि माया की तरफ हर बार जाता है

वहाँ बस नेकियाँ ही साथ जा पाती हैं, सुनते हैं
यहीं पर छूट धन-दौलत का ये अम्बार जाता है

सिमटता जा रहा है जिस्म के ही दायरे में बस
कहाँ अब रूह की गहराइयों तक प्यार जाता है

कोई मासूम बच्चा छोड़ता है नाव काग़ज़ की
तो इक चींटा भी लेकर के उसे उस पार जाता है

जिसे हम धर्म का प्रहरी समझते हैं वही इक दिन
जुए में घर की इज़्ज़त, घर की शोभा हार जाता है



</poem>‌
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