बाप पूत में बैर
जिनको दूध पिलाया वो ही
काट रहe रहें हैं पैर
आखिर ऐसे ठंडे रिश्ते
कब तक ढोयें हम
बोटी बोटी नुची देह की
बची न तन पर खाल
स्वाद दूसरो दूसरों को देने में
मुर्गा हुआ हलाल
ऐसे ऐसी बेदर्दी पर कब तक
नैन भिगोयें हम
मुँह पर खुशहाली की बातें
बाँसेां बांसों उछले दाम नोन तेल लकडी लकड़ी गरीब का
जीना किये हराम
आसमान के नीचे आखिर
कब तक सोयें हम।
</poem>