'''[[राम प्रसाद बिस्मिल]]'''
(११ जून, १८९७ से १९ दिसम्बर, १९२७)
उपनाम : 'राम','अज्ञात', 'बिस्मिल', व 'पण्डित जी'
राम प्रसाद बिस्मिल भारत के महान क्रान्तिकारी व अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं, अपितु उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाभाषी, इतिहासकार व साहित्यकार भी थे जिन्होंने भारत की आजादी के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी।
==जन्म==
११ जून १८९७ तदनुसार ज्येष्ठ शुक्ल निर्जला एकादशी, सम्वत् १८५४,शुक्रवार, पूर्वान्ह ११ बजकर ११ मिनट पर उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर में जिला जेल के निकट स्थित खिरनीबाग मुहल्ले में पं० मुरलीधर की धर्मपत्नी श्रीमती मूलमती की कोख से इस दिव्यात्मा का आविर्भाव हुआ। उनके पिता मुरलीधर, शाहजहाँपुर नगरपालिका में काम करते थे। १९ दिसम्बर सन् १९२७ को बेरहम ब्रिटिश सरकार ने गोरखपुर जेल में षड्यन्त्रपूर्वक फाँसी पर लटकाकर उनकी जीवन-लीला समाप्त कर दी। 'बिस्मिल' उनका उर्दू उपनाम था जिसका हिन्दी अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत। वे बड़े ही होनहार तेजस्वी महापुरुष थे।
==पैतृक गाँव बरबई==
राम प्रसाद बिस्मिल के दादा जी नारायण लाल का पैतृक गाँव बरबई तत्कालीन ग्वालियर राज्य में चम्बल नदी के बीहड़ों में स्थित तोमरधार क्षेत्र (वर्तमान मध्य प्रदेश) के मुरैना जिले में आज भी है। बरबई ग्राम-वासी बड़े ही उद्दण्ड प्रकृति के व्यक्ति थे जो आये दिन अँग्रेजों व अँग्रेजी आधिपत्य वाले ग्राम-वासियों को तंग करते थे। पारिवारिक कलह के कारण नारायण लाल ने अपनी पत्नी विचित्रा देवी व दोनों पुत्रों - मुरलीधर एवं कल्याणमल सहित अपना पैतृक गाँव छोड़ दिया। उनके गाँव छोडने के बाद बरबई में केवल उनके दो भाई - अमान सिंह व समान सिंह ही रह गये जिनके वंशज कोक सिंह आज भी उसी गाँव में रहते हैं। केवल इतना परिवर्तन हुआ है कि बरबई गाँव के एक पार्क में राम प्रसाद बिस्मिल की एक भव्य प्रतिमा मध्य प्रदेश सरकार ने स्थापित कर दी है[4]।है।
काफी भटकने के पश्चात् यह परिवार उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक नगर शाहजहाँपुर आ गया। शाहजहाँपुर में मुन्नूगंज के फाटक के पास स्थित एक अत्तार की दुकान पर मात्र तीन रुपये मासिक में नारायण लाल ने नौकरी करना शुरू कर दिया। भरे-पूरे परिवार का गुजारा न होता था। मोटे अनाज - बाजरा, ज्वार, सामा, ककुनी को राँध (पका) कर खाने पर भी काम न चलता था। फिर बथुआ या ऐसा ही कोई साग आदि आटे में मिलाकर भूख शान्त करने का प्रयास किया गया। दोनों बच्चों को रोटी बनाकर दी जाती किन्तु पति-पत्नी को आधे भूखे पेट ही गुजारा करना होता। ऊपर से कपड़े-लत्ते और मकान किराये की विकट समस्या तो थी ही। बिस्मिल की दादी जी विचित्रा देवी ने अपने पति का हाथ बटाने के लिये मजदूरी करने का विचार किया किन्तु अपरिचित महिला को कोई भी आसानी से अपने घर में काम पर न रखता था। आखिर उन्होंने अनाज पीसने का कार्य शुरू कर दिया। इस काम में उनको तीन-चार घण्टे अनाज पीसने के पश्चात् एक या डेढ़ पैसा ही मिल पाता था। यह सिलसिला लगभग दो-तीन वर्ष तक चलता रहा। दादी जी बड़ी स्वाभिमानी प्रकृति की महिला थीं, अत: उन्होंने हिम्मत न हारी। उनको पक्का विश्वास था कि कभी न कभी अच्छे दिन अवश्य आयेंगे।