}}
<poem>
बिना नाव के माझी मिलतेदेखे मुझको मैंने नदी किनारेकितनी राह कटेगी चलकरउनके संग सहारे!
इनके-उनके ताने सुनना
दिन-भर देह गलाना
बंधा तीन रुपैया मजदूरी का मिले मजूरी
नौ की आग बुझाना
अपनीअलग-अपनी ढपली सबकीसबके अलग हैरामकहानी टूटे हुए शिकारे!
बढ़ती जाती रोज उधारी
ले-दे काम चलाना
रोज-रोज झोपड़ पर अपने
नए तगादे आना
अपनी-अपनी घातों में सबघात सिखाई हैतंगी ने किसको कौन उबारे!
पानी-पानी भरा पड़ा हैप्यासा मन क्या बोलेजलाशय किसकी प्यास मिटी जो दिखता है कितनी
केवल बातें घोले
प्यासा तोड़ दिया
करता दम
मुख को खोले-खोले
अपनी आँखों में सपने हैंअपने स्वप्न, भयावहउनकी में सुख सारे!कितने उनके सुखद सहारे
</poem>