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14:19, 11 मार्च 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान
|संग्रह=
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<Poem>
उठता-गिरता
उड़ता जाए
टुकड़ा काग़ज़ का
कभी पेट की चोटों को
आँखों में भर लाता
कभी अकेले में
भीतर की
टीसों को गाता
अंदर-अंदर
लुटता जाए
टुकड़ा काग़ज़ का
कभी फ़सादों-
बहसों में
शब्द-शब्द है नाचा
दरके-दरके शीशे में
चेहरा देखा- बांचा
सिद्धजनों पर
हँसता जाए
टुकड़ा काग़ज़ का
कभी कोयले-सा
धधका,
फिर राख बना, रोया
माटी में मिल गया
कि जैसे
माटी में सोया
चलता है हल
गुड़ता जाए
टुकड़ा काग़ज़ का
</poem>