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<Poem>
आप तो बोलें मैं अगर चुप हूँ
कुछ तो होगा जो सोचकर चुप हूँ

दरमियाँ किसलिए ये ख़ामोशी
तू उधर चुप है मैं इधर चुप हूँ

यूँ तो मुँह में ज़ुबान है मेरे
घर के हालात देखकर चुप हूँ

तुमको परवाह अब नहीं मेरी
मुझको मालूम है मगर चुप हूँ

इक ज़माने में मैं सिकन्दर था
वक़्त से आज हारकर चुप हूँ

वो ये कहता है ग़म बयान करूँ
इस ज़माने को क्या ख़बर चुप हूँ

मैं उड़ा था ग़रूर से ऐ 'मनु'
कट गए मेरे बालो-पर चुप हूँ</poem>
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