1,454 bytes added,
06:26, 18 मार्च 2012 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान
|संग्रह=
}}
{{KKCatNavgeet}}
<Poem>
मैं झूला हूँ
एक धुरी पर
जाने कब से झूल रहा हूँ
अपनी पीड़ा झूल-झूल कर
थोड़ा-थोड़ा भूल रहा हूँ
आते हैं
अनजाने राही
साथी बनने का दम भरने
कुछ पल में ही
चल देते हैं
किसी और का फिर मन धरने
इतना सुख
मेरी क़िस्मत में
जिसके बल मैं कूल रहा हूँ
आओ आकर
कुछ पल देखो
क्या है मेरी राम कहानी
ना है मेरा बचपन बाक़ी
ना ही बाक़ी रही जवानी
जीवन के
इस कठिन मोड़ पर
मैं कितना अब शूल रहा हूँ
एक उदासी की
छाया ने
आकर मुझको घेर लिया है
टूट रहे हैं गुरिया सारे
आज समय ने पेर लिया है
पानी में ज्यों
पड़े काठ-सा
मैं पलछिन अब फूल रहा हूँ
</poem>