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|रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान
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चेहरे पढ़ने पर
लगें
टेढ़े-मेढ़े अन्दर

थर्मामीटर तोड़ रहा है
उबल-उबल कर पारा
लेबल मीठे जल का
लेकिन
पानी लगता खारा

समय उस्तरा है
जिसको
चला रहे हैं बन्दर

चीलगाह जैसा है मंजर
लगती भीड़ मवेशी
किसकी कब
थम जाएँ सांसें
कब पड़ जाए पेशी

कितने ही घर
डूब गए
यह बाज़ार-समंदर

त्याग दिया
हंसों ने कंठी
बगुलों ने है पहनी
बागवान की नज़रों से है
डरी-डरी-सी टहनी

दिखे छुरी को
सुन्दर-सा
सूरज एक चुकंदर
</poem>
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