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पिता! / अवनीश सिंह चौहान

130 bytes added, 07:57, 18 मार्च 2012
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नदिया में मुझको नहलायाझूले में मुझको झुलवायापीड़ा में मुझको सहलाएमेरी जिद पर गोद उठाकर मुझे मनाए
पिता हमाए
तरह-तरह की जब भी फसलीचीजें लातेसबसे सब से पहले मुझे खिलाते कभी-कभी खुद भी ना खाएभूखे रह करमुझे खिलाए
पिता हमाए
मैं रोया तो मुझे चुपातेचुपायादुनियाँ की बातें समझाते' बिल्ली आई'कह बहलाया  मुश्किल में जीवन जीने की -कला सिखाए
पिता हमाए
शब्द सुना पापा का जब से मैं भी पिता बना हूँपापा-सा वह शब्द सुना हूँबन गया तब से पितामधुर-बोध स्मृतियों मधुर-सीसंस्मृयों में आएअब तक छाए पिता कहाएहमाए
</poem>
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