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<Poem>
वक्त की आंधी उड़ाकरउड़ा करले गयी सब कुछ हमारागई मेरा सहारा
नम हुई है जो आँख, मन परबादलों मन के बादलों का झुण्ड हैं अबजैसे धड़ धड़कता है कहीं है परयहाँ तो फड़फड़iते फड़फडाता मुंड हैं अबजैसे
रो रहीं लहरें रही सूखीनदी कीका छोड़करके अब न कोई है किनारा
पांव में खुद जंजीर भारीजैसे
और मरुथल-सी डगर है
रिस रहे छाले रही पीड़ा ह्रदय के की और किन्तु दुनिया बेख़बर है
सब तरफ बैसाखियाँ हैंकौन दे किसको सहारा!
सोच मजहब-मजहब, जातियों में -सी रह गए गई है मात्र बंटकर जी रहे हैं रही है किस्त में हर साँस वो भी डर-संभलकर संभल कर
सुर्खियाँ बनकर छपीं बेजान-सी हैंमर गया कैसे जैसे लवारा?
</poem>
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