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<Poem>
कभी अयुध्या अब न अजुध्या मन में बसतीकभी अयुध्या के बाहर अब न बगाइच वाला वह मनचिंताओं कंकरीट के मकड़जाल से ने फांस लिया है मुक्त डोलता कोमल सादा जीवन
बचपन के तो चंद इशारे कभी पकड़ना माँ समझे या समझे बापूअपनी छाया जिनकी ओली ही लगती हैकभी छाँह से डर कर रहना कभी चाँद- तारों को चाहें कभी धूप के सबसे ऊंचा सुन्दर टापूमोती चुनना
क्या सोना तब हीरा- मोतीरस था क्या माने रखता सिंहासन!आमों के झगड़ों में 'कुट्टी' में भी था अपनापन
कभी चाँद छोटेपन के बाल- तारों की बातेंइशारे कभी धूप के मोती चुनना माँ समझे या समझे बापूजिनकी ओली ही लगती थी कभी पकड़ना अपनी छाया सबसे ऊंचा अपने मन की आहट सुननासुन्दर टापू
छोटे-छोटे खेलों में भी गाँव किनारे हो जाती थी मीठे अनबन!जखई बाबा का वह चौपड़ था सिंहासन
चढी जवानी देखे सपने बोझिल झुके हुए हैं कंधेधुक-धुक-धुक-धुक जी करता हैकितने फंदे- , कितने धंधे!चढी जवानी देखे सपना बोझिल झुके हुए हैं कंधे
मन ही मन बस यह ही चाहूँ मुझमें लौटे फिर मुझमें से मेरा बचपन!
</poem>
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