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कुंआं / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
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06:40, 25 मार्च 2012
उलीच उलीच कर
मैंने एक दिन
खाली कर
दिया था कुंआं --
लगता था
अब कुछ
उभर कर
न आएगा -
खाली- बाल्टी
खाली घडा
ऊपर आएगा ...
पर देखा
रोज शतदल की
नाक की तरह
उल्टा -दीख कर भी
घडा
सीधा -सीधा
फिर भर कर
उभर आता है ....
उभर आता है ....
</Poem>
आशिष पुरोहित
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