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कवयित्री के पीराक्रान्त हृदय की यह अभिव्यक्ति किसी को मिठास-युक्त लगेगी, तो किसी को नैराश्य-युक्त! बहरहाल हरकीरत के लिए तो यह पीर-पगी काव्याभिव्यक्ति कुछ पल की राहत का साधन है...‘पीर का निकासमार्ग’ है। दूसरे शब्दों में कहें... तो कविता, कवयित्री के अश्रुस्नात ‘दर्द’ की एकल ग्राहक है, जिसकी सन्निधि में वह स्वयं को हल्का कर लेती है। बक़ौल हरकीरत, ‘इस बदलते वक़्त में हर चीज़ बिकती है...बस दर्द नहीं बिकता!’ ऐसे में कविता अपने ममतामयी आँचल में कवयित्री की आँख से झरते अश्रुकणों को थाम लेती है। स्त्री-विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने पर उसके अश्रुकण नारी-वर्ग की प्रतिनिधिक व्यथा-कथा भी लिखते नज़र आने लगते हैं, जिसमें शोषण-उत्पीड़न, आकांक्षाओं का दमन और इतस्ततः विद्रोही तेवर भी साफ़ झलकते हैं।
सारतः अगर जीवन में ‘दर्द’ है, तो फिर कितना भी ‘दमन’ किया जाय... उसे कितना भी छिपाया जाय, अन्ततः उसकी ‘महक’ फ़िज़ाओं में आ ही जाती है। [[हरकीरत हीर हकीर]] के पुर-अश्क ‘दर्द ‘ [[दर्द की महक’ महक / हरकीरत हकीर| दर्द की महक]]’ नज़्मों के एक ख़ूबसूरत गुलदस्ते के रूप में संग्रहीत होकर पाठकों के बीच यथोचित समादर पायेगी,
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समीक्षक '''जितेन्द्र ‘जौहर’'''
सोनभद्र-18 (उप्र)
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