Changes

'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेश शर्मा |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poem> कुछ ...' के साथ नया पन्ना बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=राजेश शर्मा
|संग्रह=
}}
{{KKCatGeet}}
<poem>
कुछ चले हैं, कुछ बढ़े हैं, कुछ चढ़े हैं हाँ मगर

आख़िरी सोपान तक ,पहुंचे नहीं हैं हम अभी.

बांटते हैं रोज लाखों लाख खुशियाँ , हाँ मगर,

आख़िरी इन्सान तक पहुंचे नहीं हैं हम अभी.


कौन समझाए हमें, ये है हमारी त्रासदी,

जागने भर में, अभी तक खर्च दी आधी सदी

योजनायें हैं ,बड़ी परियोजनाएं, हाँ मगर ,

बस सही अनुमान तक पहुंचे नहीं हैं हम अभी.


श्वेत हो या हरित हो, ये क्रांति भी तो क्रांति है,

पर दिलों में आज भी, कुछ रूढ़ियों की भ्रान्ति है,

सौ सुयोजन हैं,प्रयोजन हैं, नियोजन ,हाँ मगर,

एक ही संतान तक ,पहुंचे नहीं हैं हम अभी .


भावनाएं हैं बहुत, गौरव कथाएँ याद हैंए,

पर न जाने भीड़ में ये कौन सा उन्माद है,

प्रार्थना हैं,अजानें, आरतीं हैं, हाँ मगर,

देश के यश गान तक,पहुंचे नहीं हैं हम अभी.


स्वर्ण-चिड़िया की, कभी क्या आन थी क्या शान थी,

विश्व में सबसे अलग एसबसे बड़ी पहचान थी,

ज्ञात हैं, विज्ञात हैं, विख्यात भी हैं, हाँ मगर,

फिर उसी सम्मान तक, पहुंचे नहीं हैं हम अभी.


ये हमारे देश के, निर्माण का मजमून है,

कुछ पसीना भी हमारा है, हमारा खून है,

खूब श्रम है, और उपक्रम है, पराक्रम, हाँ मगर,

क्यों स्वयं जी-जान तक, पहुंचे नहीं हैं हम अभी.