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एक औरत की तरह, औरत
स्याही की धूप में जलती हुई-सी
अब भी बाहर है कलम क़लम की कैद क़ैद से
समय की चादर बुन रही है फिर
गले से गुज़रता है साँसों का काफिला क़ाफ़िला
सितारे दफ़्न हो गये कदमों की कब्र में
आँखों से आह की बूँद नहीं आई
क्षितिज के गालों पर हल्की-सी मुस्कान
बीमार होता है जब कोई अक्षर
सूखने लगती है पलों की पंखुरियाँ पंखुड़ियाँ बाढ़ -सी आती है उम्र की नदी में
अंधेरा उठता है चाँद को छूने
चुपचाप देखती है मटमैली मिट्टी
कभी तमाशा , कभी तमाशाई बन कर जब बदला गया बदली गई ‘बेडशीट’ की तरह और काग़ज़ों पर छपती रही काग़ज़ों के लब पर
सोचता रहा सदियों तक कमरा
टूटा हुआ कोई साज़ हो जैसे
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