'''[[ज़्याँ मेरी गुस्ताव लेक्लेज़ियो]]'''
‘‘मेरी जिंदगी का सबसे सुखद क्षण वह होता है, जब मैं कागज-कलम के साथ अपनी मेज पर होता हूँ। इसके लिए मुझे किसी सुविधा की आवश्यकता नहीं होती बल्कि मैं कहीं भी लेखन कार्य कर सकता हूँ। लिखना मेरे लिए एक सफर की तरह ही है और यह मेरे भीतर से शुरू होता है और एक नई जिंदगी ही नहीं बल्कि बेहतरीन जिंदगी देता है।‘‘ इस विचार को अपनाने वाले फ्रेंच लेखक [[ज़्याँ मेरी गुस्ताव लेक्लेज़ियो]] को वर्ष 2008 के नोबेल साहित्य पुरस्कार हेतु चुना गया है। 50 से अधिक पुस्तकों के लेखक एवं कथा, उपन्यास से लेकर निबंध और बाल-साहित्य तक में सशक्त दखल रखने वाले क्लेजियो को स्वीडिश अकादमी ने ‘नई राहों का अन्वेषी और मानवता की खोज करने वाला लेखक‘ करार दिया। आखिर हो भी क्यों न, मानवता के नये आयामों तथा हाशिये के लोगों से निरंतर जुड़े क्लेजियो अपनी कविताओं और साहित्य में ‘बौद्धिक भावातिरेक‘ पैदा करने के लिए जाने जाते हैं। उनकी रचनाओं में मानवीय सरोकार हैं, खो चुकी सभ्यताओं की चिंता है तो विस्थापन का दर्द भी है। समकालीन समाज और वैश्विक परिदृश्य में जो कुछ घटित हो रहा है, उससे उनकी लेखनी अछूती नहीं है। इन मुद्दों पर यथास्थितिवादी होने की बजाय वे बेबाकी से अपनी बात कहते रहे हैं। वस्तुत: वह नये प्रस्थानों, काव्यात्मक प्रयोग, कवित्वपूर्ण रोमांच और संवेदनात्मक उत्कर्ष एवं क्षेत्रीय सभ्यताओं के पार और भीतर मानवीय पक्षों की सशक्त अभिव्यक्ति के लेखक हैं।
‘‘मेरी जिंदगी का सबसे सुखद क्षण वह होता है, जब मैं कागज-कलम के साथ अपनी मेज पर होता हूँ। इसके लिए मुझे किसी सुविधा की आवश्यकता नहीं होती बल्कि मैं कहीं भी लेखन कार्य कर सकता हूँ। लिखना मेरे लिए एक सफर की तरह ही है और यह मेरे भीतर से शुरू होता है और एक नई जिंदगी ही नहीं बल्कि बेहतरीन जिंदगी देता है।‘‘ इस विचार को अपनाने वाले फ्रेंच लेखक [[ज़्याँ मेरी गुस्ताव लेक्लेज़ियो]] को वर्ष 2008 के [[नोबेल साहित्य पुरस्कार]] हेतु चुना गया है। 50 से अधिक पुस्तकों के लेखक एवं कथा, उपन्यास से लेकर निबंध और बाल-साहित्य तक में सशक्त दखल रखने वाले क्लेजियो को स्वीडिश अकादमी ने ‘नई राहों का अन्वेषी और मानवता की खोज करने वाला लेखक‘ करार दिया। आखिर हो भी क्यों न, मानवता के नये आयामों तथा हाशिये के लोगों से निरंतर जुड़े क्लेजियो अपनी कविताओं और साहित्य में ‘बौद्धिक भावातिरेक‘ पैदा करने के लिए जाने जाते हैं। उनकी रचनाओं में मानवीय सरोकार हैं, खो चुकी सभ्यताओं की चिंता है तो विस्थापन का दर्द भी है। समकालीन समाज और वैश्विक परिदृश्य में जो कुछ घटित हो रहा है, उससे उनकी लेखनी अछूती नहीं है। इन मुद्दों पर यथास्थितिवादी होने की बजाय वे बेबाकी से अपनी बात कहते रहे हैं। वस्तुत: वह नये प्रस्थानों, काव्यात्मक प्रयोग, कवित्वपूर्ण रोमांच और संवेदनात्मक उत्कर्ष एवं क्षेत्रीय सभ्यताओं के पार और भीतर मानवीय पक्षों की सशक्त अभिव्यक्ति के लेखक हैं। [[ज़्याँ मेरी गुस्ताव लेक्लेज़ियो]] का जन्म 13 अप्रैल 1940 को फ्रांस के नीस शहर में हुआ। उनके पूर्वज मूलत: मारीशस के थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद क्लेजियो की माँ फ्रांस में बस गईं जहाँ उनका जन्म हुआ। तब किसने सोचा था कि एक दिन मारीशस मूल का यह व्यक्ति फ्रेंच साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार अर्जित करेगा। 1901 में प्रथम नोबेल साहित्य पुरस्कार प्राप्तकर्ता फ्रेंच लेखक [[सुली प्रुधोम ]] से आरम्भ हुए इस सफर में क्लेजियो 14वें फ्रेंच साहित्यकार हैं। यह अजीब इत्तफाक है कि कभी फ्रांस के ही अस्तित्ववादी विचारक ज्यां पाल सात्र ने नोबेल पुरस्कार को आलू का बोरा कहकर ठुकरा दिया था, पर आज उसी परम्परा में इसको ग्रहण करने वाले फ्रेंच लेखकों की कमी नहीं है।
फ्रेंच पब्लिक स्कूल में अपना आरम्भिक अध्ययन करने वाले क्लेजियो का फ्रेंच भाषा से अटूट जुड़ाव रहा। किशोरावस्था से ही वे लेखन में प्रवृत्त क्लेजियो का पहला उपन्यास 23 वर्ष की उम्र में वर्ष 1963 में ‘ली प्रोसेस वर्बल‘ नाम से प्रकाशित हुआ। उनकी आरम्भिक कृतियाँ रोजमर्रा के शब्दों के उपयोग के साथ गहन संवेदनात्मक अनुभूति पैदा करने वाले अलंकृत शब्दों के विलक्षण एवं अनुपम प्रयोग व अद्भुत कल्पनाशीलता की मिसाल मानी जाती हैं। कालांतर में उन्होंने बाल-साहित्य जैसी उपेक्षित विधा पर जोर देते हुए बचपन पर केन्द्रित कई अविस्मरणीय कथायें भी रचीं। इन कृतियों में उनके बचपन और पारिवारिक पृष्ठभूमि की झलक देखी जा सकती है।
पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से [[नोबेल पुरस्कार ]] की चयन प्रक्रिया पर प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं, उससे यह पुरस्कार भी अछूता नहीं रहा। पिछले वर्ष जब 87 वर्ष की आयु में डोरिस लैंसिंग को साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था, तो आलोचकों ने इसे देरी से दिया गया सम्मान बताया था। 23 वर्ष में अपना प्रथम उपन्यास लिखने वाले क्लेजियो को 68 वर्ष की उम्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ, इस हिसाब से यह उनके लिए सुखद रहा कि इसके लिए उन्हें लम्बा इन्तजार नहीं करना पड़ा। पर आलोचक यह सवाल जरूर उठा रहे हैं कि दुनिया के विभिन्न देशों में साहित्य पर इतना काम हो रहा है पर स्वीडिश अकादमी की निगाह बार-बार फ्रेंच लेखकों पर ही क्यों जाती है? साहित्य के क्षेत्र में दिया जाने वाला नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाला हर सातवाँ व्यक्ति आखिर फ्रेंच ही क्यों है? गौरतलब है कि क्लेजियो ने अमेरिकी संस्कृति पर बहुत कुछ लिखा है और इसके पीछे वे कारण बताते हैं कि वह एक ऐसी संस्कृति है जिसने आधुनिक दुनिया के कई तरह के आघातों को विशेषकर यूरोपीय विजयों को सहा पर आज वह एक मजबूत राष्ट्र के रूप में विश्व में अपनी निर्णायक भूमिका निभा रहा है। आलोचक क्लेजियो द्वारा अमेरिकी संस्कृति का बखान करने को भी इतनी सहजता से नहीं देखते हैं। यही नहीं कुछ विशेष महाद्वीपों के ऊपर स्वीडिश अकादमी की मेहरबानी भी आलोचकों की नजर से अछूती नहीं है।
विवादों के इस पचड़े के बावजूद क्लेजियो सहजता से अपनी सृजन यात्रा अनवरत जारी रखना चाहते हैं और वे अपना ध्यान सिर्फ लिखने में ही लगाना चाहते हैं। लेखन की महत्ता को वे बखूबी समझते हैं और लेखक के रूप में अपनी सीमाओं से बखूबी परिचित भी हैं। लेखक के ऊपर दार्शनिकता और विचारक होने का ठप्पा थोपने की बजाय वह मानते हैं कि दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है, लेखक-साहित्यकार को उसका महज साक्षी बन कर चीजों को लोगों के सामने ईमानदारी से प्रस्तुत करना चाहिए। क्लेजियो की यह सहजता भले ही बहुतों के गले न उतरे पर अपनी ईमानदारी और साफगोई को स्वीकारने में उन्हें कोई हिचक नहीं।
लेखिका परिचय:-
[[आकांक्षा यादव]]