{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
|संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
|सारणी=अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
<poem>
सूनापन सिहरा,
अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे,
शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की,
मेरे ही उर पर, धँसाती हुई सिर,
छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें
मीठी है दुःसह!!
अरे, हाँ, साँकल ही रह -रह
बजती है द्वार पर।
कोई मेरी बात मुझे बताने के लिए ही
बुलाता है -- बुलाता है
हृदय को सहला मानो किसी जटिल
प्रसंग में सहसा होठों पर
होठ रख, कोई सच-सच बात
सीधे-सीधे कहने को तड़प जाय, और फिर
वही बात सुनकर धँस जाय मेरा जी--
इस तरह, साँकल ही रह-रह बजती है द्वार पर
आधी रात, इतने अँधेरे में, कौन आया मिलने?
विमन प्रतीक्षातुर कुहरे में घिरा हुआ
द्युतिमय मुख - वह प्रेम भरा चेहरा --
भोला-भाला भाव--
पहचानता हूँ बाहर जो खड़ा है !!
यह वही व्यक्ति है, जी हाँ !
जो मुझे तिलस्मी खोह में दिखा था।
अवसर-अनवसर
प्रकट जो होता ही रहता
मेरी सुविधाओं का न तनिक ख़याल कर।
चाहे जहाँ,चाहे जिस समय उपस्थित,
चाहे जिस रूप में
चाहे जिन प्रतीकों में प्रस्तुत,
इशारे से बताता है, समझाता रहता,
हृदय को देता है बिजली के झटके !!
अरे, उसके चेहरे पर खिलती हैं सुबहें,
गालों पर चट्टानी चमक पठार की
आँखों में किरणीली शान्ति की लहरें
उसे देख, प्यार उमड़ता है अनायास!
लगता है-- दरवाजा खोलकर
बाहों में कस लूँ,
हृदय में रख लूँ
घुल जाऊँ, मिल जाऊँ लिपटकर उससे
परन्तु, भयानक खड्डे के अँधेरे में आहत
और क्षत-विक्षत, मैं पड़ा हुआ हूँ,
शक्ति ही नहीं है कि उठ सकूँ जरा भी
(यह भी तो सही है कि
::कमज़ोरियों से ही लगाव है मुझको)
इसीलिए टालता हूँ उस मेरे प्रिय को
कतराता रहता,
डरता हूँ उससे।
वह बिठा देता है तुंग शिखर के
ख़तरनाक, खुरदरे कगार-तट पर
शोचनीय स्थिति में ही छोड़ देता मुझको।
कहता है-"पार करो पर्वत-संधि के गह्वर,
रस्सी के पुल पर चलकर
दूर उस शिखर-कगार पर स्वयं ही पहुँचो"
अरे भाई, मुझे नहीं चाहिए शिखरों की यात्रा,
मुझे डर लगता है ऊँचाइयों से
बजने दो साँकल!!
उठने दो अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले,
वह जन वैसे ही
आप चला जायेगा आया था जैसा।
खड्डे के अँधेरे में मैं पड़ा रहूँगा
पीड़ाएँ समेटे !!
क्या करूँ क्या नहीं करूँ मुझे बताओ,
इस तम-शून्य में तैरती है जगत्-समीक्षा
की हुई उसकी
(सह नहीं सकता)
विवेक-विक्षोभ महान् उसका
तम-अन्तराल में (सह नहीं सकता)
अँधियारे मुझमें द्युति-आकृति-सा
भविष्य का नक्षा दिया हुआ उसका
सह नहीं सकता !!
नहीं, नहीं, उसको छोड़ नहीं सकूँगा,
सहना पड़े--मुझे चाहे जो भले ही।
सूनापन सिहराकमज़ोर घुटनों को बार-बार मसल,<br>अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे,<br>लड़खड़ाता हुआ मैं शून्य के मुख पर सलवटें स्वर कीउठता हूँ दरवाज़ा खोलने,<br>मेरे ही उर पर, धँसाती हुई सिर,<br>छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें<br>मीठी है दुःसह!!<br>अरे, हाँ, साँकल ही रह -रह<br>बजती है द्वार पर।<br>कोई मेरी बात मुझे बताने चेहरे के लिए ही<br>बुलाता है रक्त-- बुलाता है<br>हृदय हीन विचित्र शून्य को सहला मानो किसी जटिल<br>गहरे प्रसंग में सहसा होठों पर<br>होठ रखपोंछता हूँ हाथ से, कोई सच-सच बात<br>सीधेअँधेरे के ओर-सीधे कहने को तड़प जाय, और फिर<br>वही बात सुनकर धँस जाय मेरा जीछोर टटोल--<br>टटोलकर इस तरहबढ़ता हूँ आगे, साँकल ही रह-रह बजती है द्वार पर<br>आधी रातपैरों से महसूस करता हूँ धरती का फैलाव, इतने अँधेरे में, कौन आया मिलने?<br>विमन प्रतीक्षातुर कुहरे में घिरा हुआ<br>द्युतिमय मुख - वह प्रेम भरा चेहरा --<br>भोला-भाला भाव--<br>पहचानता हाथों से महसूस करता हूँ बाहर जो खड़ा है !!<br>दुनिया, यह वही व्यक्ति मस्तक अनुभव करता है, जी हाँ !<br>आकाश जो मुझे तिलस्मी खोह दिल में दिखा था।<br>अवसर-अनवसर<br>प्रकट जो होता ही रहता <br>मेरी सुविधाओं तड़पता है अँधेरे का न तनिक ख़याल कर।<br>चाहे जहाँअन्दाज़,चाहे जिस समय उपस्थित,<br>चाहे जिस रूप में <br>चाहे जिन प्रतीकों में प्रस्तुतआँखें ये तथ्य को सूँघती-सी लगतीं, <br>इशारे से बताता केवल शक्ति है, समझाता रहता,<br>हृदय को देता है बिजली के झटके !!<br>अरे, उसके चेहरे पर खिलती हैं सुबहें,<br>गालों पर चट्टानी चमक पठार स्पर्श की<br>गहरी। आँखों आत्मा में किरणीली शान्ति की लहरें<br>उसे देख, प्यार उमड़ता है अनायास!<br>भीषण लगता हैसत्-चित्- दरवाजा खोलकर<br>बाहों में कस लूँवेदना जल उठी,<br>दहकी। हृदय में रख लूँ<br>घुल जाऊँ, मिल जाऊँ लिपटकर उससे<br>परन्तु, भयानक खड्डे के अँधेरे में आहत<br>और क्षतविचार हो गए विचरण-विक्षत, मैं पड़ा हुआ हूँ, <br>सहचर। शक्ति ही नहीं है कि उठ सकूँ जरा भी<br>(यह भी तो सही है कि<br>::कमज़ोरियों से ही लगाव है मुझको)<br>इसीलिए टालता बढ़ता हूँ उस मेरे प्रिय को<br>कतराता रहताआगे,<br>डरता चलता हूँ उससे।<br>वह बिठा देता है तुंग शिखर के <br>ख़तरनाक, खुरदरे कगारसँभल-तट पर<br>शोचनीय स्थिति में ही छोड़ देता मुझको।<br>कहता है-"पार करो पर्वत-संधि के गह्वरसँभलकर,<br> रस्सी के पुल पर चलकर<br>दूर उस शिखर-कगार पर स्वयं ही पहुँचो"<br>अरे भाईद्वार टटोलता, मुझे नहीं चाहिए शिखरों की यात्रा,<br>मुझे डर लगता है ऊँचाइयों से<br>बजने दो साँकल!!<br>उठने दो अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुलेज़ंग खायी,<br>वह जन वैसे ही<br>आप चला जायेगा आया था जैसा।<br>खड्डे के अँधेरे में मैं पड़ा रहूँगा<br>पीड़ाएँ समेटे !!<br>क्या करूँ क्या नहीं करूँ मुझे बताओ,<br>इस तम-शून्य में तैरती है जगत्-समीक्षा<br>की जमी हुई उसकी<br>जबरन (सह नहीं सकता)<br>सिटकनी हिलाकर विवेक-विक्षोभ महान् उसका<br>तम-अन्तराल में (सह नहीं सकता)<br>अँधियारे मुझमें द्युति-आकृति-सा<br>भविष्य का नक्षा दिया हुआ उसका<br>सह नहीं सकता !!<br>नहीं, नहीं, उसको छोड़ नहीं सकूँगाज़ोर लगा,<br>दरवाज़ा खोलता सहना पड़े--मुझे चाहे जो भले ही।<br><br>झाँकता हूँ बाहर....
कमज़ोर घुटनों को बार-बार मसलसूनी है राह,<br>लड़खड़ाता हुआ मैं<br>उठता हूँ दरवाज़ा खोलनेअजीब है फैलाव,<br>चेहरे के रक्त-हीन विचित्र शून्य को गहरे<br>सर्द अँधेरा। पोंछता हूँ हाथ ढीली आँखों से,<br>देखते हैं विश्व अँधेरे के ओर-छोर टटोल-टटोलकर<br>उदास तारे। बढ़ता हूँ आगे,<br>हर बार सोच और हर बार अफ़सोस पैरों से महसूस करता हूँ धरती हर बार फ़िक्र के कारण बढे हुए दर्द का फैलावमानो कि दूर वहाँ,<br>दूर वहाँ हाथों से महसूस करता हूँ दुनिया,<br>मस्तक अनुभव करता अँधियारा पीपल देता है, आकाश<br>पहरा। दिल हवाओं की निःसंग लहरों में तड़पता है अँधेरे का अन्दाज़,<br>काँपती आँखें ये तथ्य को सूँघती-सी लगतीं,<br>केवल शक्ति है स्पर्श कुत्तों की गहरी।<br>आत्मा में, भीषण<br>सत्दूर-चित्दूर अलग-वेदना जल उठीअलग आवाज़, दहकी।<br>विचार हो गए विचरण-सहचर।<br>टकराती रहती सियारों की ध्वनियों से। बढ़ता हूँ आगेकाँपती हैं दूरियाँ,<br>गूँजते हैं फ़ासले चलता हूँ सँभल-सँभलकर(बाहर कोई नहीं, <br>द्वार टटोलता,<br>ज़ंग खायी, जमी हुई जबरन<br>सिटकनी हिलाकर<br>ज़ोर लगा, दरवाज़ा खोलता<br>झाँकता हूँ कोई नहीं बाहर....<br><br>)
सूनी है राह, अजीब है फैलाव,<br>सर्द अँधेरा।<br>ढीली आँखों से देखते हैं विश्व<br>उदास तारे।<br>हर बार सोच और हर बार अफ़सोस<br>हर बार फ़िक्र<br>के कारण बढे हुए दर्द का मानो कि दूर वहाँ, दूर वहाँ<br>अँधियारा पीपल देता है पहरा।<br>हवाओं की निःसंग लहरों में काँपती<br>कुत्तों की दूर-दूर अलग-अलग आवाज़,<br>टकराती रहती सियारों की ध्वनियों से।<br>काँपती हैं दूरियाँ, गूँजते हैं फ़ासले<br>(बाहर कोई नहीं, कोई नहीं बाहर)<br><br> इतने में अँधियारे सूने में कोई चीख़ गया है<br>रात का पक्षी<br>कहता है--<br>"वह चला गया है,<br>वह नहीं आएगा, आएगा ही नहीं<br>अब तेरे द्वार पर।<br>वह निकल गया है गाँव में शहर में।<br>उसको तू खोज अब<br>उसका तू शोध कर!<br>वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति,<br>उसका तू शिष्य है(यद्यपि पलातक....)<br>वह तेरी गुरू है, <br>
गुरू है...."
</poem>