{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
|संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
|सारणी=अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
<poem>
अकस्मात्
चार का ग़जर कहीं खड़का
मेरा दिल धड़का,
उदास मटमैला मनरूपी वल्मीक
चल-विचल हुआ सहसा।
अनगिनत काली-काली हायफ़न-डैशों की लीकें
बाहर निकल पड़ीं, अन्दर घुस पड़ीं भयभीत,
सब ओर बिखराव।
मैं अपने कमरे में यहाँ लेटा हुआ हूँ।
काले-काले शहतीर छत के
हृदय दबोचते।
यद्यपि आँगन में नल जो मारता,
जल खखारता।
किन्तु न शरीर में बल है
अँधेरे में गल रहा दिल यह।
अकस्मात्<br>एकाएक मुझे भान होता है जग का, चार अख़बारी दुनिया का ग़जर कहीं खड़का<br>फैलाव, मेरा दिल धड़काफँसाव,<br>घिराव, तनाव है सब ओर, उदास मटमैला मनरूपी वल्मीक<br>पत्ते न खड़के, चलसेना ने घेर ली हैं सड़कें। बुद्धि की मेरी रग गिनती है समय की धक्-विचल हुआ सहसा।<br>धक्। यह सब क्या है अनगिनत कालीकिसी जन-काली हायफ़नक्रान्ति के दमन-डैशों की लीकें<br>निमित्त यह बाहर निकल पड़ींमॉर्शल-लॉ है! दम छोड़ रहे हैं भाग गलियों में मरे पैर, अन्दर घुस पड़ीं भयभीतसाँस लगी हुई है,<br>सब ओर बिखराव।<br>ज़माने की जीभ निकल पड़ी है, कोई मेरा पीछा कर रहा है लगातार भागता मैं अपने कमरे में यहाँ लेटा हुआ हूँ।<br>दम छोड़, कालेघूम गया कई मोड़, चौराहा दूर से ही दीखता, वहाँ शायद कोई सैनिक पहरेदार नहीं होगा फ़िलहाल दिखता है सामने ही अन्धकार-काले शहतीर छत के<br>स्तूप-सा हृदय दबोचते।<br>भयंकर बरगद-- यद्यपि आँगन में नल जो मारतासभी उपेक्षितों, समस्त वंचितों,<br>जल खखारता।<br>ग़रीबों का वही घर,वही छत, किन्तु न शरीर उसके ही तल-खोह-अँधेरे में बल है<br>सो रहे गृह-हीन कई प्राण। अँधेरे में गल रहा दिल यह।<br><br>डूब गये डालों में लटके जो मटमैले चिथड़े किसी एक अति दीन पागल के धन वे। हाँ, वहाँ रहता है, सिर-फिरा एक जन।
एकाएक मुझे भान होता है जग का,<br>किन्तु आज इस रात बात अजीब है। अख़बारी दुनिया का फैलाव,<br>वही जो सिर फिरा पागल क़तई था फँसाव, घिराव, तनाव है सब ओर, <br>पत्ते न खड़के,<br>सेना ने घेर ली हैं सड़कें।<br>आज एकाएक वह जागृत बुद्धि की मेरी रग<br>गिनती है समय की धक्-धक्।<br>, प्रज्वलत् धी है। यह सब क्या है<br>किसी जन-क्रान्ति के दमन-निमित्त यह<br>मॉर्शल-लॉ है!<br>दम छोड़ रहे हैं भाग गलियों में मरे पैरसिरफिरापन,<br>साँस लगी हुई हैबहुत ऊँचे गले से,<br>ज़माने की जीभ निकल पड़ी हैगा रहा कोई पद,<br>कोई मेरा पीछा कर रहा है लगातार<br>गान भागता मैं दम छोड़,<br>आत्मोद्बोधमय!! घूम गया कई मोड़खूब भई,<br>चौराहा दूर से ही दीखताखूब भई,<br>वहाँ शायद कोई जानता क्या वह भी कि सैनिक पहरेदार<br>नहीं होगा फ़िलहाल<br>दिखता प्रशासन है सामने ही अन्धकार-स्तूप-सा<br>भयंकर बरगद--<br>सभी उपेक्षितों, समस्त वंचितों,<br>ग़रीबों का वही घर,वही छत,<br>उसके ही तल-खोह-अँधेरे नगर में सो रहे<br>वाक़ई! गृह-हीन कई प्राण।<br>अँधेरे में डूब गये<br>डालों में लटके जो मटमैले चिथड़े<br>किसी एक अति दीन<br>पागल के धन वे।<br>हाँ, वहाँ रहता है, सिर-फिरा एक जन।<br><br>क्या उसकी बुद्धि भी जग गयी!
किन्तु आज इस रात बात अजीब है।<br>(करुण रसाल वे हृदय के स्वर हैं वही जो सिर फिरा पागल क़तई था<br>आज एकाएक वह<br>जागृत बुद्धि है, प्रज्वलत् धी है।<br>छोड़ सिरफिरापन,<br>बहुत ऊँचे गले से,<br>गा गद्यानुवाद यहाँ उनका दिया जा रहा कोई पद, कोई गान<br>आत्मोद्बोधमय!!<br>खूब भई,खूब भई,<br>जानता क्या वह भी कि<br>सैनिक प्रशासन है नगर में वाक़ई!<br>क्या उसकी बुद्धि भी जग गयी!<br><br>)
(करुण रसाल वे हृदय के स्वर हैं <br>"ओ मेरे आदर्शवादी मन, गद्यानुवाद यहाँ उनका दिया जा रहा है)<br><br>ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन, अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया!!
"ओ मेरे आदर्शवादी मनउदरम्भरि बन अनात्म बन गये,<br>ओ मेरे सिद्धान्तवादी मनभूतों की शादी में क़नात-से तन गये,<br>अब तक क्या किया?<br>जीवन क्या जिया!!<br><br>किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
उदरम्भरि दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना, अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना, असंग बुद्धि व अकेले में सहना, ज़िन्दगी निष्क्रिय बन अनात्म गयी तलघर, अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया!! बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये, करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये, बन गयेपत्थर,<br>भूतों की शादी में क़नातबहुत-से तन बहुत ज़्यादा लिया, दिया बहुत-बहुत कम, मर गया देश, अरे जीवित रह गयेतुम!! लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,<br>किसी व्यभिचारी जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया, स्वार्थों के बन टेरियार कुत्तों को पाल लिया, भावना के कर्तव्य--त्याग दिये, हृदय के मन्तव्य--मार डाले! बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया, तर्कों के हाथ उखाड़ दिये, जम गये बिस्तर,<br><br>जाम हुए, फँस गये, अपने ही कीचड़ में धँस गये!! विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में आदर्श खा गये!
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,<br>अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,<br>असंग बुद्धि व अकेले में सहना,<br>ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,<br><br>अब तक क्या किया,<br>जीवन क्या जिया!!<br><br>बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,<br>करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,<br>बन गये पत्थर,<br>बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,<br>और दिया बहुत-बहुत कम,<br>मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!<br>लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,<br>जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया,<br>स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,<br>भावना के कर्तव्य--त्याग दिये,<br>हृदय के मन्तव्य--मार डाले!<br>बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,<br>तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,<br>जम गये, जाम हुए, फँस गये,<br>अपने ही कीचड़ में धँस गये!!<br>विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में<br>आदर्श खा गये!<br><br>..."
अब तक क्या कियामेरा सिर गरम है,<br>जीवन क्या जियाइसीलिए गरम है। सपनों में चलता है आलोचन,<br>ज़्यादा लिया और दिया बहुतविचारों के चित्रों की अवलि में चिन्तन। निजत्व-बहुत कम<br>माफ़ है बेचैन, मर गया देशक्या करूँ, अरे जीवित रह गये तुम..."<br><br>किससे कहूँ, कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन? वैदिक ऋषि शुनःशेप के शापभ्रष्ट पिता अजीर्गत समान ही व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ वही उसे अकस्मात् मिलता था रात में, पागल था दिन में सिर-फिरा विक्षिप्त मस्तिष्क।
मेरा सिर गरम हैहाय,<br>हाय! इसीलिए गरम है।<br>उसने भी यह क्या गा दिया, सपनों में चलता है आलोचनयह उसने क्या नया ला दिया,<br>विचारों के चित्रों की अवलि में चिन्तन।<br>प्रत्यक्ष, मैं खड़ा हो गया निजत्वकिसी छाया मूर्ति-माफ़ सा समक्ष स्वयं के होने लगी बहस और लगने लगे परस्पर तमाचे। छिः पागलपन है बेचैन,<br>क्या करूँवृथा आलोचन है। गलियों में अन्धकार भयावह-- मानो मेरे कारण ही लग गया मॉर्शल-लॉ वह, किससे कहूँ,<br>कहाँ जाऊँमानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया, दिल्ली या उज्जैन?<br>वैदिक ऋषि शुनःशेप के<br>शापभ्रष्ट पिता अजीर्गत समान मानो मेरे कारण ही<br>दुर्घट व्यक्तित्व अपना ही, अपने हुई यह घटना। चक्र से खोया चक्र लगा हुआ<br>है.... जितना ही तीव्र है द्वन्द्व क्रियाओं घटनाओं का वही उसे अकस्मात् मिलता था रात बाहरी दुनिया में,<br>पागल था दिन उतनी ही तेजी से भीतरी दुनिया में<br>, सिर-फिरा विक्षिप्त मस्तिष्क।<br><br>चलता है द्वन्द्व कि फ़िक्र से फ़िक्र लगी हुई है। आज उस पागल ने मेरी चैन भुला दी, मेरी नींद गवाँ दी।
हाय, हाय!<br>उसने भी यह क्या गा दिया,<br>यह उसने क्या नया ला दिया,<br>प्रत्यक्ष,<br>मैं खड़ा हो गया<br>किसी छाया मूर्ति-सा समक्ष स्वयं के<br>होने लगी बहस और<br>लगने लगे परस्पर तमाचे।<br>छिः पागलपन है,<br>वृथा आलोचन है।<br>गलियों में अन्धकार भयावह--<br>मानो मेरे कारण ही लग गया<br>मॉर्शल-लॉ वह,<br>मानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया,<br>मानो मेरे कारण ही दुर्घट<br>हुई यह घटना।<br>चक्र से चक्र लगा हुआ है....<br>जितना ही तीव्र है द्वन्द्व क्रियाओं घटनाओं का<br>बाहरी दुनिया में,<br>उतनी ही तेजी से भीतरी दुनिया में,<br>चलता है द्वन्द्व कि<br>फ़िक्र से फ़िक्र लगी हुई है।<br>आज उस पागल ने मेरी चैन भुला दी,<br>मेरी नींद गवाँ दी।<br><br> मैं इस बरगद के पास खड़ा हूँ।<br>मेरा यह चेहरा <br> घुलता है जाने किस अथाह गम्भीर, साँवले जल से,<br>झुके हुए गुमसुम टूटे हुए घरों के<br>तिमिर अतल से<br>घुलता है मन यह।<br>रात्रि के श्यामल ओस से क्षालित<br>कोई गुरू-गम्भीर महान् अस्तित्व<br>महकता है लगातार<br>मानो खँडहर-प्रसारों में उद्यान<br>गुलाब-चमेली के, रात्रि-तिमिर में,<br>महकते हों, महकते ही रहते हों हर पल।<br>किन्तु वे उद्यान कहाँ हैं,<br>अँधेरे में पता नहीं चलता।<br>मात्र सुगन्ध है सब ओर,<br>पर, उस महक--लहर में<br>कोई छिपी वेदना, कोई गुप्त चिन्ता <br>
छटपटा रही है।
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