‘‘--पृष्ठभूमि याद है-तब छोटी थी, जब डायरी लिखती थी तो सदा ताले में रखती थीं। पर अलमारी के अन्दर खाने की उस चाभी को शायद ऐसे संभाल-संभालकर रखती थी कि उसकी संभाल किसी को निगाह में आ गयी ।(यह विवाह के बाद की बात है)। एक दिन मेरी चोरी से उस अलमारी का वह खाना खेाला गया और डायरी को पढा गया। और फिर मुझसे कई पंक्तियों की विस्तार पूर्ध व्याख्या मांगी गयी। उस दिन को भुगतकर मेने वह डायरी फाड दी, और बाद में कभी डायरी न लिखने का अपने आपसे इकरार कर लिया।---’’
विख्यात शायर [[साहिर लुधियानवी ]] से अमृता का प्यार तत्कालीन समालोचकों का पसंदीदा विषय था। साहिर के साथ अपने लगाव को उन्होंने बेबाकी से अपनी आत्मकथा में इस प्रकार व्यक्त किया है।ः-
‘‘--- पर जिंदगी में teen समय ऐसे आए हैं-जब मैने अपने अन्दर की सिर्फ औरत को जी भर कर देखा है। उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अन्दर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया--दूसरी बार ऐसा ही समय मैने तब देखा जब एक दिन साहिर आया था तो उसे हल्का सा बुखार चढा हुआ था। उसके गले में दर्द था-- सांस खिंचा-खिंचा थां उस दिन उसके गले और छाती पर मैने ‘विक्स’ मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी--और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खडे़ खडे़ पोरों से , उंगलियोें से और हथेली से उसकी छाती को हौले हौले मलते हुये सारी उम्र गुजार sakati हूं। मेरे अंदर की सिर्फ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज कलम की आवश्यकता नहीं थी।---
सेाचती हूं - क्या खुदा इस जैसे इन्सान से कहीं अलग होता है--’’
[[अमृता प्रीतम ]] ने स्वयं अपनी रचनाओं में व्यक्त अधूरी प्यास के संदर्भ में लिखा है कि
‘‘ग्ंागाजल से लेकर वोडका तक यह सफरनामा है मेरी प्यास का।’’
अम्रता की रचनाओं में विभाजन का दर्द और मानवीय संवेदनाओं का सटीक चित्रण हुआ है। इनके संबंध में नेपाल के उपन्यासकार धूंसवां सायमी ने 1972 में लिखा थाः-
‘‘ मैं जब [[अम्रता प्रीतम ]] की कोई रचना पढता हूं, तब मेरी भारत विरोधी भावनाऐं खत्म हो जाती हैं।’’
इनकी कविताओं के संकलन ‘धूप का टुकडा’ के हिंदी में अनुदित प्रकाशन पर कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा थाः-
‘‘अमृता ‘‘[[अमृता प्रीतम ]] की कविताओं में रमना हृदय में कसकती व्यथा का घाव लेकर , प्रेम और सौन्दर्य की धूप छांव वीथि में विचरने के समान है ं इन कविताओं के अनुवाद से हिन्दी काव्य भाव धनी, स्वव्न7 संस्कृत तथा शिल्प समृद्ध बनेगा--- ’’
इनकी रचनाओं मंे '''‘दिल्ली की गलियां’(उपन्यास), ‘एक थी अनीता’(उपन्यास), काले अक्षर, कर्मों वाली, केले का छिलका, दो औरतें (सभी कहानियां 1970 के आस-पास) ‘यह हमारा जीवन’(उपन्यास 1969 ), ‘आक के पत्ते’ (पंजाबी में बक्क दा बूटा ),‘चक नम्बर छत्तीस’( ), ‘यात्री’ (उपन्यास1968,), ‘एक सवाल (उपन्यास ),‘पिधलती चट्टान(कहानी 1974), धूप का टुकडा(कविता संग्रह), ‘गर्भवती’(कविता संग्रह), ''' आदि प्रमुख हैं।
==पुरस्कार==
अमृता जी को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी नवाजा गया, जिनमे प्रमुख है १९५७ में [[साहित्य अकादमी पुरस्कार]], १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कार, १९८८ में [[बल्गारिया वैरोव पुरस्कार]];(अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८२ में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार [[ज्ञानपीठ पुरस्कार। पुरस्कार]]। वे '''पहली महिला थी जिन्हे साहित्य अकादमी अवार्ड''' मिला और साथ ही साथ वे पहली पंजाबी महिला थी जिन्हे १९६९ मे पद्मश्री अवार्ड [[’पद्मश्री’ से अलंकृत]]/नवाजा गया। १९६१ तक इन्होने आल इन्डिया रेडियो मे काम किया। १९६० मे अपने पति से तलाक के बाद, इनकी रचनाओं मे महिला पात्रों की पीड़ा और वैवाहिक जीवन के कटु अनुभवों का अहसास को महसूस किया जा सकता है। विभाजन की पीड़ा को लेकर इनके उपन्यास पिंजर पर एक फ़िल्म भी बनी थी, जो अच्छी खासी चर्चा मे रही। इन्होने पचास से अधिक पुस्तकें लिखीं और इनकी काफ़ी रचनाये विदेशी भाषाओं मे भी अनुवादित हुई।
इनके पुरस्कारों की तो लम्बी फ़ेहरिस्त है -