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|रचनाकार=रांगेय राघव
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डायन है सरकार फिरंगी, चबा रही हैं दाँतों से,
छीन-गरीबों के मुँह का है, कौर दुरंगी घातों से ।
डायन हरियाली में आग लगी है सरकार फिरंगी, चबा रही हैं दांतों सेनदी-नदी है खौल उठी, <br>छीन-गरीबों भीग सपूतों के मुहं का लहू से अब धरती हैबोल उठी, कौर दुरंगी घातों से ।<br>
हरियाली में आग लगी है, नदी नदी है खौल उठी,<br>भीग सपूतों के लहू से अब धरती है बोल उठी,<br> इस झूठे सौदागर का यह काला चोर बाजार -बाज़ार उठे,<br>परदेशी का राज न हो बस यही एक हुंकार उठे ।।<br/poem>
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