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|रचनाकार='अना' क़ासमी
|संग्रह=हवाओं के साज़ पर/ 'अना' क़ासमी
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<poem>
उस शख़्स की अ़जीब थीं जादू बयानियाँ
इमान मेरा ले गई झूठी कहानियाँ

मैं उसको पाके, अब भी हूँ उसकी तलाश में
सोचा था ख़त्म हो गयीं सब जाँ फ़िशानियाँ<ref>संघर्ष</ref>

ये बात भी बजा के कहा तुमने कुछ न था
फिर भी थी तेरी ज़ात से कुछ ख़ुशगुमानियाँ

रातों को चाँदनी से बदन जल उठा कभी
दिन को महक उठी हैं कभी रात रानियाँ

था पारसा तो मैं भी मगर उसने जब कहा
आती कहाँ हैं लौट के फिर ये जवानियाँ
<poem>
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