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14:19, 1 जून 2012 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='अना' क़ासमी
|संग्रह=हवाओं के साज़ पर/ 'अना' क़ासमी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
अश्क इतने हमने पाले आँख में
पड़ गये हैं यार छाले आँख में
जागती आँखों को भी फुरसत नहीं
तुमने इतने ख़्वाब डाले आँख में
इस गली के बाद तारीकी है देख
कुछ बचा रखना उजाले आँख में
पत्थरों पर नींद भी आ जायेगी
बिस्तरों पर गुल बिछा ले आँख में
कुछ बिखरता टूटता जाता हूँ अब
कोई तो मुझको छुपा ले आँख में
बूढ़ी आँखों में कोई रहता नहीं
मकड़ियाँ बुनती हैं जाले आँख में
<poem>