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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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लाखों अरमान थे काग़ज़ पे, निकाले कितने
ख़ूने-दिल से जो लिखे ख़त वो, संभाले कितने

आपसे हो तो करें, हम से तो होगा न शुमार
उजले दिल कितने यहाँ, और हैं काले, कितने

ख़्वाब दौलत के यूँ ही पूरे नहीं तूने किये
मुँह से मुफ़लिस के भी छीने हैं निवाले कितने

तीरगी में है घिरी ऐसे हयाते-फानी
मुझसे कतरा के निकलते हैं उजाले कितने

शे'रगोई में हूँ मैं अदना सा शायर लेकिन
लफ़्ज़ तनक़ीद के यारों ने उछाले कितने

मुश्किलें रेत की मानिन्द फिसल जाती हैं
अक्ल की चाबी ने वा कर दिए ताले कितने

शे'र तो शे'र हैं पहुँचेंगे सभी रूहों तक
ज़िन्दा हैं ज़ह्न में लोगों के मक़ाले कितने

इक अयोध्या के लिए, क्यूँ हैं परेशाँ दोनों
मस्जिदें और भी हैं, और शिवाले कितने

अब तो मजमूए की तू, शक्ल इन्हें दे दे 'रक़ीब'
तेरी ग़ज़लों को संभालेंगे रिसाले कितने
</poem>
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