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'''डॉ.आलोक रंजन|'''[[
== कड़ी शीर्षक ==
आलोक ,३:०७#REDIRECT [[<poem>Insert text</poem>]]]]
 '''== सृजक =
पथराई आँखों के भीतर वह भाव ढूँढता फिरता है ,
मृदा शिला में भी जीवन का आधार ढूँढता रहता है |
 
कवि हो या हो कृषक ,मरुभूमि हो या हो मिथक ,
निर्विकार को आकार-बंध,शिल्पी की निजता है |
 
मेरे ही गीतों की धुन पर केशव तुमने रास रचाया ,
मेरे ही कपास के सूतों से तुमने कृष्णा की लाज बचाया |
 
उसी चीर के आँचल को बेच –बेच मैंने ब्याज चुकाया ,
बुरा न मानो माधव ! तुमने मित्रता धर्म नहीं निभाया|
 
तुम स्रष्टा हो ,तुम हो पूजित ,माखन पर अधिकार तुम्हारा ,
तुम संबल हो ,कभी शेष को ,और कभी भूधर को क्षत्र बनाया |
 
माता का लहू पीकर हमने मुरलीधर ,गोवर्धन को मूर्त उतारा,
भूख से मेरा बालक तरसे ,तुमने छप्पन भोग लगाया ?
 
माना तुम लीलाधर हो,अंतर्यामी! जग भी तेरी माया है ,
तेरे दीप-पात्र में जलता मेरा लहू क्यों है ,गलती मेरी काया है?
 
तुम हो स्रष्टा ,लक्ष्मीपति तुम ,महलों के अधिकारी हो ,
मैं हूँ सृजक धान्य-धन का नहीं ,बस सपनों का व्यापारी हूँ |
 
कभी सूर बन अन्ध कूप से मैंने तेरा ही गान किया ,
मीरा बन कभी ,मुरारी!,हलाहल का पान किया |
 
ठाकुर!बाल-सखा के लाए धान्य ,जिसने स्वयं ब्रह्म को तृप्त किया ,
उसे उगाने हेतु हमने ,ह्रदय चीर अपने लहू कोष को रिक्त किया |
 
समर मध्य जब पृथा –पुत्र क्लीव सा मोह –पाश में भरमाया ,
क्षात्र धर्म रक्षित करने हित,मोह –बंध खंडित करने हित –
 
मोहन! तुमने धर्म-नीति रक्षा हेतु ,भारत को विश्वरूप था दिखलाया|
सरसों के पीले फूलों में ,उसे देखता रहता मैं नित |
 
भूमंडल को अपनी इच्छा से तुमने युगों-युगों अगिनत बार बसाया है ,
वासुदेव!गीली मिट्टी में तुम्हे,बसाने शिल्पी ने ,अविरल चाक घुमाया है !
 
सृष्टि का संहार-सृजन तुम्हारी माया के आधीन,निजता का संचार मात्र ,
मिट्टी को सिंचित करता मेरा लहू–स्वेद,तपने की अग्नि- भूखे-बच्चों का करुण आत्र|
 
सुवामा शक्ति स्वयं ,या किसी अपर शक्ति के आधीन ?
हे राम! जनक-सुता का सार्वभौम से यह प्रश्न अति प्राचीन !
 
नारी मात्र कौशल्या हो या स्वयं ब्रम्ह की छाया?
युगों-युगों से जलती आयी वैदेही की काया !
 
मायापति को मूर्त रूप देती जिस नारी की कोख |
आश्रय होता उसका स्वयं निविड़ वाटिका अशोक !
 
रावण के कृत्यों का अबला क्यों अपराध सहे?
रुधिर पिला कर पालन करती लघुता को सुवरिष्ट,तब स्रष्टा पूजे जाते हैं |
सृजक जब सितकेशी हो ,प्रवया हो ,साकल्य छीन अंचल का न्यास चुकाते हैं !
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