==प्रसिद्धि के पथ पर==
[[चित्र:mahdevimlchaturvedi.jpg|thumb|right|महादेवी वर्मा- माखनलाल चतुर्वेदी के साथ]]1932 में [[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]] एम.ए. करने के बाद से उनकी प्रसिद्धि का एक नया युग प्रारंभ हुआ। भगवान [[बुद्ध]] के प्रति गहन भक्तिमय अनुराग होने के कारण और अपने बाल-विवाह के अवसाद को झेलने वाली महादेवी बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहती थीं। कुछ समय बाद [[महात्मा गांधी]] के सम्पर्क और प्रेरणा से उनका मन सामाजिक कार्यों की ओर उन्मुख हो गया। प्रयाग विश्वविद्यालय से [[संस्कृत]] साहित्य में एम० ए० करने के बाद [[प्रयाग महिला विद्यापीठ]] की प्रधानाचार्या का पद संभाला और [[चाँद पत्रिका|चाँद]] का निःशुल्क संपादन किया। प्रयाग में ही उनकी भेंट [[रवीन्द्रनाथ ठाकुर]] से हुई और यहीं पर 'मीरा जयंती' का शुभारम्भ किया। [[कलकत्ता]] में जापानी कवि योन नागूची के स्वागत समारोह में भाग लिया और [[शान्ति निकेतन]] में गुरुदेव के दर्शन किये। यायावरी की इच्छा से [[बद्रीनाथ]] की पैदल यात्रा की और रामगढ़, नैनीताल में 'मीरा मंदिर' नाम की कुटीर का निर्माण किया। एक अवसर ऐसा भी आया कि विश्ववाणी के बुद्ध अंक का संपादन किया और 'साहित्यकार संसद' की स्थापना की। भारतीय रचनाकारों को आपस में जोड़ने के लिये 'अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन' का आयोजन किया और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से 'वाणी मंदिर' का शिलान्यास कराया। [[चित्र:Mahadevindira.jpg|thumb|150px|left|इंदिरा गांधी के साथ]]स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात [[इलाचंद्र जोशी]] और [[दिनकर]] जी के साथ दक्षिण की साहित्यिक यात्रा की। [[निराला]] की काव्य-कृतियों से कविताएँ लेकर 'साहित्यकार संसद' द्वारा [[अपरा]] शीर्षक से काव्य-संग्रह प्रकाशित किया। 'साहित्यकार संसद' के मुख-पत्र साहित्यकार का प्रकाशन और संपादन इलाचंद्र जोशी के साथ किया। प्रयाग में नाट्य संस्थान 'रंगवाणी' की स्थापना की और उद्घाटन मराठी के प्रसिद्ध नाटककार [[मामा वरेरकर]] ने किया। इस अवसर पर भारतेंदु के जीवन पर आधारित नाटक का मंचन किया गया। अपने समय के सभी साहित्यकारों पर [[पथ के साथी]] में संस्मरण-रेखाचित्र- कहानी-निबंध-आलोचना सभी को घोलकर लेखन किया। १९५४ में वे दिल्ली में स्थापित [[साहित्य अकादमी]] की सदस्या चुनी गईं तथा १९८१ में सम्मानित सदस्या। इस प्रकार महादेवी का संपूर्ण कार्यकाल राष्ट्र और राष्ट्रभाषा की सेवा में समर्पित रहा।
==व्यक्तित्व==
[[चित्र:Mahadeviramkumaragyeya.jpg|thumb|right|हिंदी साहित्य की तीन महान विभूतियाँ- डॉ.रामकुमार वर्मा, अज्ञेय और महादेवी वर्मा]]महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व में संवेदना दृढ़ता और आक्रोश का अद्भुत संतुलन मिलता है। वे अध्यापक, कवि, गद्यकार, कलाकार, समाजसेवी और विदुषी के बहुरंगे मिलन का जीता जागता उदाहरण थीं। वे इन सबके साथ-साथ एक प्रभावशाली व्याख्याता भी थीं। उनकी भाव चेतना गंभीर, मार्मिक और संवेदनशील थी। उनकी अभिव्यक्ति का प्रत्येक रूप नितान्त मौलिक और हृदयग्राही था। वे मंचीय सफलता के लिए नारे, आवेशों, और सस्ती उत्तेजना के प्रयासों का सहारा नहीं लेतीं। गंभीरता और धैर्य के साथ सुनने वालों के लिए विषय को संवेदनशील बना देती थीं, तथा शब्दों को अपनी संवेदना में मिला कर परम आत्मीय भाव प्रवाहित करती थीं। इलाचंद्र जोशी उनकी वक्तृत्व शक्ति के संदर्भ में कहते हैं - 'जीवन और जगत से संबंधित महानतम विषयों पर जैसा भाषण महादेवी जी देती हैं वह विश्व नारी इतिहास में अभूतपूर्व है। विशुद्ध वाणी का ऐसा विलास नारियों में तो क्या पुरुषों में भी एक रवीन्द्रनाथ को छोड़ कर कहीं नहीं सुना। महादेवी जी विधान परिषद की माननीय सदस्या थीं। वे विधान परिषद में बहुत ही कम बोलती थीं, परंतु जब कभी महादेवी जी अपना भाषण देती थीं तब पं.कमलापति त्रिपाठी के कथनानुसार- सारा हाउस विमुग्ध होकर महादेवी के भाषणामृत का रसपान किया करता था। रोकने-टोकने का तो प्रश्न ही नहीं, किसी को यह पता ही नहीं चल पाता था कि कितना समय निर्धारित था और अपने निर्धारित समय से कितनी अधिक देर तक महादेवी ने भाषण किया।