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|रचनाकार=मीर तक़ी 'मीर'
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[[Category:ग़ज़ल]]<poem>
मुँह तका ही करे है जिस-तिस का
 
हैरती है ये आईना किस का
जाने क्या गुल खिलाएगी गुल-रुत
ज़र्द चेह्रा है डर से नर्गिस का
शाम ही से बुझा बुझा -सा रहता है दिल हुआ है चिराग मुफलिस काहो गोया चराग़ मुफ़लिस
आँख बे-इख़्तियार भर आई
हिज्र सीने में जब तेरा सिसका
थे बुरे मुगाबचो के तेवर लेक
 
शैख़ मयखाने से भला खिसका
 फैज़फ़ैज़ ये अब्र--अब्र चश्म--तर से उठा आज दामन वसी वसीअ है इस का  
ताब किस को जो हाल-ऐ-'मीर' सुने
 
हाल ही और कुछ है मजलिस का
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