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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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<poem>

ऐसे दिल से मेरे धुवाँ निकले
जैसे यादों का कारवाँ निकले

उसकी नज़रों के तीर आँखों से
जाने कब छोड़कर कमाँ निकले

आए क्योंकर बहार गुलशन में
मुन्तज़िर है कि कब खिजाँ निकले

ग़ालिबो-मीर और दाग़-ओ-फ़िराक
कैसे - कैसे थे खुशबयाँ निकले

कोई उनतीस था नहीं उनमें
वाँ तो सब तीसमारखाँ निकले

कैसे ढूँढ़े कोई पता उसका
घर जो बेसक्फो-सायबाँ निकले

छोड़कर तुम 'रक़ीब' मत जाओ
दिल के अरमाँ अभी कहाँ निकले
</poem>
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