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10:13, 23 जुलाई 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=महेश अश्क
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<poem>
न मेरा जिस्म कहीं औ' न मेरी जाँ रख दे
मेरा पसीना जहाँ है, मुझे वहाँ रख दे
बगूला बन के भटकता फिरूँगा मैं कब तक
यक़ीन रख कि न रख, मुझमे कुछ गुमाँ रख दे
बिदक भी जाते हैं, कुछ लोग भिड़ भी जाते हैं
प' इसके डर से, कोई आईना कहाँ रख दे
वो रात है, कि अगर आदमी के बस में हो
चिराग़ दिल को करे और मकाँ-मकाँ रख दे
जो अनकहा है अभी तक, वो कहके देखा जाए
ख़मोशियों के दहन में, कोई ज़ुबाँ रख दे
</poem>