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गोपी सुनहु हरि संदेस । <br>कह्यौ पूरन ब्रह्म ध्यावहु, त्रिगुन मिथ्या भेष ॥<br>मैं कहौं सो सत्य मानहु, सगुन डारहु नाखि ।<br>पंच त्रय-गुन सकल देही, जगत ऐसौ भाषि ॥<br>ज्ञान बिनु नर-मुक्ति नाहीं, यह विषय संसार ।<br>रूप-रेख, न नाम जल थल, बरन अबरन सार ॥<br>मातु पितु कोउ नाहिं नारी, जगत मिथ्या लाइ ।<br>सूर सुख-दुख नहीं जाकैं, भजौ ताकौं जाइ ॥1॥ <br><br>
ऐसी बात कहौ जनि ऊधौ ।<br>कमलनैन की कानि करति हैं, आवत बचन न सूधौ ॥<br>बातनि ही उड़ि जाहिं और ज्यौं, त्यौं नाहीं हम काँची ।<br>मन, बच, कर्म सोधि एकै मत, नंद-नंदन रँग राँची ॥<br>सो कछु जतन करौ पालागौ, मिटै हियै की सूल ।<br>मुरलीधरहिं आनि दिखरावहु, ओढ़े पीत दुकूल ॥<br>इनहीं बातनि भए स्याम तनु , मिलवत हौ गढ़ि छोलि ।<br>सूर बचन सुनि रह्यौ ठगौसौ, बहुरि न आयौ बोलि ॥2॥ <br><br>
फिरि फिरि कहा बनावत बात ।<br>प्रात काल उठि खेलत ऊधौ, घर घर माखन खात ॥<br>जिनकी बात कहत तुम हमसौं, सो है हमसौं दूरि ।<br>ह्याँ हैं निकट जसोदा-नंदन, प्रान सजीवन मूरि ॥<br>बालक संग लिऐँ दधि चोरत, खात खवावत डोलत ।<br>सूर सीस नीचौ कत नावत, अब काहैं नहिं बोलत ॥3॥ <br><br>
फिरि-फिरि कहा सिखावत मौन ॥<br>बचन दुसह लागत अलि तेरे, ज्यौं पजरे पर लौन ॥<br>सृंगी, मुद्रा, भस्म, त्वचा-मृग, अरु अवराधन पौन ।<br>हम अबला अहीरि सठ मधुकर,धरि जानहिं कहि कौन ॥<br>यह मत जाइ तिनहिं तुम सिखवहु, जिनहिं आजु सब सोहत ।<br>सूरदास कहुँ सुनी न देखी, पोत सूतरी पोहत ॥4॥ <br><br>
ऊधौ हमहिं न जोग सिखैयै ।<br>जिहि उपदेश मिलै हरि हमकौं, सो ब्रत नेम बतैयै ॥<br>मुक्ति रहौ घर बैठि आपने,,निर्गुन सुनि दुख पैयै ।<br>जिहिं सिर केस कुसुम भरि गूँदे, कैसैं भस्म चढ़ैयै ॥<br>जानि जानि सब मगन भई हैं, आपुन आपु लखैयै ।<br>सूरदास-प्रभु सनहु नवौ निधि, बहुरि कि इहिं ब्रज अइयै ॥5॥<br><br>
मधुकर स्याम हमारे ईस ।<br>तिनकौ ध्यान धरैं निसि बासर, औरहिं नवै न सीस ॥<br>जोगिनि जाइ जोग उपदेसहु, जिनके मन दस-बीस ।<br>एकै चित एकै वह मूरति, तिन चितवतिं दिन तीस ॥<br>काहें निरगुन ग्यान आपनौ, जित कित डारत खीस ।<br>सूरदास प्रभु नंदनंदन बिनु, हमरे को जगदीश ॥6॥ <br><br>
सतगुरु चरन भजे बिनु विद्या, कहु, कैसैं कोउ पावै ।<br>उपदेसक हरि दूरि रहे तैं, क्यौं हमरे मन आवै ॥<br>जो हित कियौ तौ अधिक करहि किन, आपुन आनि सिखावैं ।<br>जोग बोझ तैं चलि न सकैं तौ, हमहीं क्यौं न बुलावैं ॥<br>जोग ज्ञान मुनि नगर तजे बरु, सघन गहन बन धावैं ।<br>आसन मौन नेम मन संजम, बिपिन मध्य बनि आवैं ॥<br>आपुन कहैं करैं कछु औरै, हम सबहिनि डहकावैं ।<br>सूरदास ऊधौ सौं स्यामा, अति संकेत जनावैं ॥7॥ <br><br>
ऊधौ मन नहिं हाथ हमारैं ।<br>रथ चढ़इ हरि संग गए लै, मथुरा जबहिं सिधारे ॥<br>नातरु कहा जोग हम छाँड़हि, अति रुचि कै तुम ल्याए ।<br>हम तौ झँखतिं स्याम की करनी मन लै जोग पठाए ॥<br>अजहूँ मन अपनौ हम पावैं, तुम तैं होइ तौ होइ ।<br>सूर सपथ हमैं कोटि तिहारी, कही करैंगी सोइ ॥8॥ <br><br>
ऊधौ मन न भए दस बीस ।<br>एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को आराधै ईस ॥<br>इन्द्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस ।<br>आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ॥<br>तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस ।<br>सूर हमारै नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस ॥9॥ <br><br>
इहिं उर माखन चोर गड़े ।<br>अब कैसैं निकसत सुनि ऊधौ, तिरछे ह्वै जु अड़े ॥<br>जदपि अहीर जसोदा-नंदन, कैसैं जात छँड़े ।<br>ह्वाँ जादौपति प्रभु कहियत हैं, हमैं न लगत बड़े ॥<br>को बसुदेव देवकी नंदन, को जानै को बूझै ।<br>सूर नंदनंदन के देखत, और न कोऊ सूझै ॥10॥ <br><br>
मन मैं रह्यौ नाहिं न ठौर ।<br>नंदनंदन अछत कैसैं, आनियै उर और ॥<br>चलत चितवत दिवस जागत, स्वप्न सोवत राति ।<br>हृदय तैं वह मदन मूरति, छिन न इत उत जाति ॥<br>कहत कथा अनेक ऊधौ, लोग लौभ दिखाइ ।<br>कह करौं मन प्रेम पूरन, घट न सिंधु समाइ ॥<br>स्याम गात सरोज आनन, ललित मदु मुख हास ।<br>सूर इनकैं दरस कारन, मरत लोचन प्यास ॥11॥ <br><br>
मधुकर स्याम हमारे चोर ।<br>मन हरि लियौ तनक चितवनि मैं, चपल नैन की कोर ॥<br>पकरे हुते हृदय उर अंतर, प्रेम प्रीति कैं जोर ।<br>गए छँड़ाइ तोरि सब बंधन , दै गए हँसनि अँकोर ॥<br>चौकि परीं जागत निसि बीती, दूर मिल्यौ इक भौंर ।<br>दूरदास प्रभु सरबस लूट्यौ, नागर नवल-किसोर ॥12॥ <br><br>
सब दिन एकहिं से नहिं होते ।<br>तब अलि ससि सीरौ अब तातौ, बयौ बिरह जरि मो तैं ।<br>तब षट मास रास-रस-अंतर, एकहु निमिष न जाने । <br>अब औरै गति भई कान्ह बिनु पल पूरन जुग माने ।<br>कहा मति जोग ज्ञान साखा स्रुति, ते किन कहे घनेरे ।<br>अब कछु और सुहाइ सूर नहिं, सुमिरि स्याम गुनि केरे ॥13॥ <br><br>
सखी री स्याम सबै इक सार ।<br>मीठे बचन सुहाए बोलत, अंतर जारनहार ।<br>भंवर कुरंग काक अरु कोकिल, कपटनि की चटसार ।<br>कमलनैन मधुपुरी सिधारे, मिटि गयो मंगलचार ।<br>सुनहु सखी री दोष न काहू, जो बिधि लिख्यौ लिलार ।<br>यह करतूति उनहिं की नाहीं, पूरब बिबिध बिचार ॥<br>कारी घटा देखि बादर की, सोभा देति अपार ।<br>सूरदास सरिता सर पोषत, चातक करत पुकार ॥14॥<br><br>
बिलग जनि मानौ ऊधौ कारे ।<br>वह मथुरा काजर की ओबरी, जे आवैं ते कारे ॥<br>तुम कारे सुफलक सुत कारे, कारे कुटिल सँवारे ॥<br>कमलनैन की कौन चलावै, सबहिनि मैं मनियारे ॥<br>मानौ नील माट तैं काढ़े, जमुना आइ पखारे ।<br>तातैं स्याम भई कालिंदी, सूर स्याम गुन न्यारे ॥15॥ <br><br>
ऊधौ भली भई ब्रज आए ।<br>बिधि कुलाल कीन्हे काँचे घट, ते तुम आनि पकाए ॥<br>रंग दीन्हौं हो कान्ह साँवरैं, अँग-अँग चित्र बनाए ।<br>यातैं गरे न नैन नेह तैं, अवधि अटा पर छाए ॥<br>ब्रज करि अँवा जोग ईंधन करि, सुरति आनि सुलगाए ।<br>फूँक उसास बिरह प्रजरनि सँग, ध्यान दरस सियराए ॥<br>भरे सँपूरन सकल प्रेम-जल, छुवन न काहू पाए ।<br>राज-काज तैं गए सूर प्रभु , नँद-नंदन कर लाए ॥16॥ <br><br>
जौ पै हिरदै माँझ हरी ।<br>तौ कहि इती अवज्ञा उनपै, कैसैं सही परी ॥<br>तब दावानल दहन न पायौ, अब इहिं बिरह जरी ।<br>उर तैं निकसि नंद नंदन हम, सीतल क्यौं न करी ॥<br>दिन प्रति नैन इंद्र जल बरषत, घटत न एक घरी ।<br>अति ही सीत भीत तन भींजत, गिरि अंचल न धरी ॥<br>कर-कंकन दरपन लै देखौ, इहिं अति अनख मरी ।<br>क्यौं अब जियहिं जोग सुनि सूरज, बिरहनि बिरह भरी ॥17॥ <br><br>
ऐसौ जोग न हम पै होइ ।<br>आँखि मूँदि कह पावैं ढूँढ़े, अँधरे ज्यौं टकराइ ॥<br>भसम लगावन कहत जु हमकौ, अंग कुंकमा घोइ ।<br>सुनि कै बचन तुम्हारे ऊधौ, नैना रावत रोइ ॥<br>कुंतल कुटिल मुकुट कुंडल छबि, रही जु चित मैं पोइ ।<br>सूरज प्रभु बिनु प्रान रहै नहिं, कोटि करौ किन कोइ ॥18॥ <br><br>
हमसौं उनसौं कौन सगाई ।<br>हम अहीर अबला ब्रजवासी , वै जदुपति जदुराई ॥<br>कहा भयौ जु भए जदुनंनदन, अब यह पदवी पाई ।<br>कुच न आवत घोष बसत की, तजि ब्रज गए पराई ॥<br>ऐसे भए उहाँ जादौपति, गए गोप बिसराई ।<br>सूरदास यह ब्रज कौ नातौ, भूलि गए बलभाई ॥19॥ <br><br>
तौ हम मानै बात तुम्हारी ।<br>अपनौ ब्रह्म दिखावहु ऊधौ, मुकुट पितांबर धारी ॥<br>भनिहैं तब ताकौ सब गोपी, सहि रहिहैं बरु गारी ।<br>भूत समान बतावत हमकैं, डारहु स्याम बिसारी ॥<br>जे मुख सदा सुधा अँचवत हैं, ते विष क्यौं अधिकारी ।<br>सूरदास -प्रभु एक अँग पर, रीझि रहीं ब्रजनारी ॥20॥ <br><br>
ऊधौ जोग बिसरि जनि जाहु ।<br>बाँधौ गाँठि छूटि परिहै कहुँ, फिरि पाछैं पछिताहु ॥<br>ऐसौ बहुत अनूपम मधुकर, मरम न जानै और ।<br>ब्रज बनितनि के नहीं काम की, तुम्हरेई ठौर ॥<br>जो हित करि पठयौ मनमोहन, सो हम तुमकौ दीनौं ॥21॥ <br><br>
ऊधौ काहे कौ भक्त कहावत । <br>जु पै जोग लिखि पठ्यौ हमकौ, तुमहुँ भस्म चढ़ावत ॥<br>श्रृंगी मुद्रा भस्म अधारी, हमहीं कहा सिखावत ।<br>कुबिजा अधिक स्याम की प्यारी, ताहिं नहीं पहिरावत ॥<br>यह तौ हमकौं तबहिं न सिखयौ, जब तैं गाइ चरावत ।<br>सूरदास प्रभु कौं कहियौ अब, लिखि-लिखि पठावत ॥22॥ <br><br>
(ऊधौ) ना हम बिरहिनि ना तुम दास <br>कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहु अकास ॥<br>बिरही मीन मरै जल बिछुरैं , छाँड़ि जियन की आस ।<br>दास भाव नहिं तजत पपीहा, बरषत मरत पियास ॥<br>पंकज परम कमल मैं बिहरत, बिधि कियौ नीर निरास ।<br>राजिव रवि कौ दोष न मानत, ससि सौ सहज उदास ॥<br>प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली, प्रीतम कैं बनवास ।<br>सूर स्याम सौं दृढ़ ब्रत राख्यौ, मेटि जगत उपहास ॥23॥<br><br>
ऊधौ लै चल लै चल ।<br>जहँ वै सुंदर स्याम बिहारी, हमकौ तहँ लै चल ॥<br>आवन-आवन कहि गए ऊधौ, करि गए हमसौं छल ।<br>हृदय की प्रीति स्याम जू जानत ,कितिक दूरि गोकुल ॥<br>आपुन जाइ मधुपुरी छाए, उहाँ रहे हिलि मिल ।<br>सूरदास स्वामी के बिछुरैं , नैनि नीर प्रबल ॥24॥<br><br>
गुप्त मते की बात कहौं, जो कहौ न काहू आगैं।<br>कै हम जानै कै हरि तुमहूँ, इतनी पावहिं माँगें ॥<br>एक बेर खेलत बृंदावन, कंटक चुभि गयौ पाइँ ।<br>कंटक सौं कंटक लै काढ़्यौ, अपनें हाथ सुभाइ ॥<br>एक दिवस बिहरत बन भीतर, मैं जु सुनाई भूख ।<br>पाके फल वै देखि मनोहर, चढ़े कृपा करि रूख ॥<br>ऐसी प्रीति हमारी उनकी, बसतें गोकुल बास ।<br>सूरदास प्रभु सब बिसराई, मधुबन कियौ निवास ॥25॥ <br><br>
ऊधौ जौ हरि हितू तुम्हारे ।<br>तौ तुम कहियौ जाइ कृपा करि, ए दुख सबै हमारे ॥<br>तन तरिवर उर स्वास पवन मैं, बिरग दवा अति जारे ।<br>नहिं सिरात नहिं जात छार ह्वै, सुलगि-सुलगि भए कारे ॥<br>जद्यपि प्रेम उमँगि जल सींचे, बरषि-बरषि घन हारे ।<br>जो सींचे इहिं भाँति जतन करि, तौ एतैं प्रतिपारे ॥<br>कीर कपोत कोकिला चातक, बधिक बियोग बिडारे ।<br>क्यौ जीवैं इहिं भाँति सूर-प्रभु, ब्रज के लोग बिचारे ॥26॥ <br><br>
बिलग हम मानैं ऊधौ काकौ ।<br>तरसत रहे बसुदेव देवकी, नहिं हित मातु पिता कौ ॥<br>काके मातु पिता कौ काकौ, दूध पियौ हरि जाकौ । <br>नंद जसोदा लाड़ लड़ायौ, नाहिं भयौ हरि ताकौ ॥<br>कहियौ जाइ बनाइ बात यह, को हित है अबला कौ ।<br>सूरदास प्रभु प्रीति है कासौं, कुटिल मीत कुबिजा कौ ॥27॥ <br>
जीवन मुख देखे कौ नीकौ ।<br>दरस, परस दिन राति पाइयत, स्याम पियारे पी कौ ॥<br>सूनौ जोग कहा लै कीजै, जहाँ ज्यान है जी कौ ।<br>नैननि मूँदि मूँदि कह देखौ, बँधौ ज्ञान पोथी कौ ॥<br>आछे सुंदर स्याम हमारे, और जगत सब फीकौ ।<br>खाटी मही कहा रुचि मानै, सूर खवैया घी कौ ॥28॥<br><br>
अपने सगुन गोपालहिं माई, इहिं बिधि काहैं देति ।<br>ऊधौ की इन मीठी बातनि, निर्गुन कैसें लेति ॥<br>धर्म, अर्थ कामना सुनावत, सब सुख मुक्ति समेति ।<br>काकी भूख गई मन लाड़ू, सो देखहु चित चेति ॥<br>जाकौ मोक्ष बिचारत बरनत, निगम कहत हैं नेति ।<br>सूर स्याम तजि को भुस फटकै, मधुप तुम्हारे हेति ॥29॥<br><br>