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औ'हथेली पर उजाला पा
चमत्कृत दृग हुआ था.
दैत्य-सी दुःसाहसी होती जवानी !
आज इनको
उँगलियों में फेर फिर-फिर
डूब जाता हूँ
विचारों की अगम गहराईयों में,
और उतरा
और अपने-आप पर ही मुस्कुरा कर
पूछता हूँ,
क्या थी वे थे
जिनके लिए
मदिरा-सी पी
वाड़व विलोरित,क्षुधित पारावार में मैं धँस गया था .
कौन सा शैतान
मेरे प्राण में,
 
मोती:--
 
मंद से हो
मन्दतर-तम
बंद-सी वे धड़कने अब हो गई हैं
आगवाली,रागवाली,
गीतवाली,मंत्रवाली,
मुग्ध सुनने को जिन्हें
छाती बिंधा डाली कभी थी,
और हो चिर-मुक्त
बंधन-माल अंगीकार की थी;
साँस की भी गंध-गति गायब हुई-सी;
क्या भुजाएँ थी यही
दृढ-निश्चयी,विजयी जिन्होंने
युग-युगांत नितांत शिथिल जड़त्व को
था हुआ,छेड़ा गुदगुदाया---
आः जीने के प्रथम सुस्पर्श-
हर्षोत्कर्ष को कैसे बताया जाए--
क्या थीं मुठ्ठियाँ ये वही
जिनकी जकड़ में आ
मुक्ति ने था पूर्व का प्रारब्ध कोसा !
फटी सीपी थी नहीं
कारा कटी थी
निशा तिमरावृत छटी थी
और अंजलिपुटी का
पहला सुहाता मनुज-काया ताप
भाया था, समय था नसों में,नाड़ियों में.
खुली मुट्ठी थी
कि दृग में विश्व प्रतिबिम्बित हुआ था;
और अब वह लुप्त सहसा;
मुट्ठियाँ ढीली,उँगलियाँ शुष्क,ठंढी-सी,
विनष्टस्फूर्ति,मुर्दा.
क्या यही वे थीं कि जिनके लिए
अन्तर्द्वन्द्व,हलचल बाहरी सारी सहारी !
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