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ठोकरें / कविता वाचक्नवी
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22:33, 2 अक्टूबर 2012
पाठ व वर्तनी सुधार
हर नदी के
गर्भ
में
से
कैसा तराशा
रूप लेकर
हथोड़ों, दूमटों ने
तोड़कर या फोड़कर
आडा़
आड़ा
हमें तिरछा
किया है।
</poem>
Kvachaknavee
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