गृह
बेतरतीब
ध्यानसूची
सेटिंग्स
लॉग इन करें
कविता कोश के बारे में
अस्वीकरण
Changes
मन प्रबोध / सूरदास
2 bytes added
,
13:43, 9 अक्टूबर 2007
प्रान लए जम जात, मूढ़-मति देखत जननी-तात ।
छन इक माहिं कोटि जुग बीतत, नर की केतिक बात ।
यह जग-प्रीति सुवा-सेमर ज्यों, चाखत ही उड़ि जात ।
जमकैं फंद पर्यौ नहिं जब लगि, चरननि किन लपटात ?
Pratishtha
KKSahayogi,
प्रशासक
,
प्रबंधक
6,240
edits