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16:30, 6 दिसम्बर 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मयंक अवस्थी
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<poem>
इक चाँद तीरगी में समर रोशनी का था
फिर भेद खुल गया वो भँवर रोशनी का था
सूरज पे तूने आँख तरेरी थी , याद कर
बीनाइयों पे फिर जो असर रोशनी का था
सब चाँदनी किसी की इनायत थी चाँद पर
उस दाग़दार शै पे कवर रोशनी का था
मग़रिब की मदभरी हुई रातों में खो गया
इस घर में कोई लख़्ते –जिगर रोशनी का था
दरिया में उसने डूब के कर ली है खुदकुशी
जिस शै का आसमाँ पे सफर रोशनी का था
जर्रे को आफताब बनाया था हमने और
धरती पे कहर शामो-सहर रोशनी का था
</poem>