1,365 bytes added,
01:03, 7 दिसम्बर 2012 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मयंक अवस्थी
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
क़ैदे- शबे- हयात बदन में गुज़ार के
उड़ जाऊँगा मैं सुबह अज़ीयत उतार के
इक धूप ज़िन्दगी को यूँ सहरा बना गयी
आये न इस उजाड़ में मौसम बहार के
ये बेगुनाह शम्म: जलेगी तमाम रात
उसके लबों से छू गये थे लब शरार के
सीलन को राह मिल गयी दीमक को सैरगाह
अंजाम देख लीजिये घर की दरार के
सजती नहीं है तुमपे ये तहज़ीब मग़रिबी
इक तो फटे लिबास हैं वो भी उधार के
बादल नहीं हुज़ूर ये आँधी है आग की
आँखो से देखिये ज़रा चश्मा उतार के
जब हथकड़ी को तोड़ के क़ाफ़िर हुआ फ़रार
रोते रहे असीर ख़ुदा को पुकार के
</poem>