1,739 bytes added,
01:07, 7 दिसम्बर 2012 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मयंक अवस्थी
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
जब ख़ुद में कुछ मिला न ख़दो –ख़ाल की तरह
कुछ आइने में ढूँढ लिया बाल की तरह
सोई हुई है सुबह की तलवार जब तलक
ये शब है जुगनुओं के लिये ढाल की तरह
कुछ रोशनी के दाग़ ,उजाले का एक ज़ख़्म
कुछ तो है शब के दिल में ज़रो-माल की तरह
तहरीर कर रही है मिरी पस्त तिश्नगी
झीलों को पानियों के बिछे जाल की तरह
नागिन है कोई बेल शजर बाख़बर नहीं
केंचुल चढी हो तन पे अगर छाल की तरह
मैं मोरनी बना के उन्हें आप हो गया
इस घर की मुर्गियों के लिये दाल की तरह
फिर भी तमाम दाग़ छुपाये न छुप सके
गो चाँदनी बदन पे रही शाल की तरह
बस आइने से एक मुलाकात के सबब
लम्हात हो गये हैं महो-साल की तरह
तुम झुक गये “ मयंक” ज़माने के सामने
फूलों से और फलों से लदी डाल की तरह
</poem>