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01:12, 7 दिसम्बर 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मयंक अवस्थी
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<poem>
बैठे हो जिसके ख़ौफ से छुपकर मचान पर
वो शेर चढ रहा है सभी की ज़बान पर
वापस गिरेगा तीर तुम्हारी कमान पर
ऐ दोस्त थूकना न कभी आसमान पर
इक अजनबी ज़बान तुम्हारी ग़ज़ल में है
किसका लिखा है नाम तुम्हारे मकान पर
दिल से उतर के शक्ल पे बैठा हुआ है कौन
क़ाबिज़ हुआ है कौन तुम्हारे जहान पर
उस आइने में एक हथौड़ा है पत्त्थरों
बेहतर हो अब लगाम लगा लें ज़बान पर
तिश्नालबों ने आँख झुका ली है शर्म से
है नद्दियों का जिस्म कुछ ऐसी उठान पर
सिकुड़ा हुआ था दश्त सहमता था कोहसार
जब इश्क का जुनूँ था किसी नौजवान पर
टी –शर्ट डट रहे हो बुढापे में ऐ मयंक
क्यूँ रंग पोतते हो पुराने मकान पर –
</poem>