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01:25, 7 दिसम्बर 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मयंक अवस्थी
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<poem>
हया उतार चुकी है लिबास महफिल में
बजेंगे देर तलक अब गिलास महफिल में
मिलेंगे लोग बज़ाहिर झकास महफिल में
अगर्चे रूह है सबकी उदास महफिल में
कब इल्तिफात हो साक़ी का और किसपर हो
कि मुंतज़िर है सभी का गिलास महफिल में
हम एक ख़्वाब हैं बेदारे -चश्मे-साक़ी में
कोई न जान सका रूशनास महफिल में
जो शख़्स आपको फूलों से तौल सकता हो
उसी को आप भी डालेंगे घास महफिल में
बुझा बुझा सा है चश्मो-चरागो –महफिल यूँ
लगी थी भीड़ मेरे आस –पास महफिल में
सियाहियों से सफेदी का कत्ल करने लगे
किसी के सर पे कहाँ है कपास महफिल में
फ़लक का छोर नहीं है सभी को है मालूम
पर इसपे रोज़ लगेंगे कयास महफिल में
वो एक आग घरों को जला भी देती है
जो एक आग बुझाती है प्यास महफिल में
</poem>