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|रचनाकार=नवीन सी. चतुर्वेदी
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वो दर्जे वाले हो गए
तो क्या हम ओछे हो गए

एक बड़ा सा था दालान
अब तो कई कमरे हो गये

सबको अलहदा रहना था
देख लो घर मँहगे हो गए

झरने बन गए तेज़ नदी
राहों में गड्ढे हो गए

अज्म था बढ़ते रहने का
सब पैदल घोड़े हो गए

हर तिल में दिखता है ताड़
हम कितने बौने हो गए

कहाँ रहे तुम इतने साल
आईने शीशे हो गये

बेटे आ गए काँधों तक
कुछ बोझे हल्के हो गए

दिखते नहीं माँ के आँसू
हम सचमुच अंधे हो गए

गिनने बैठे करम उसके
पोरों में छाले हो गए
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