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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
हौसलों में उसके लगता है कमी कुछ और है
चाहती कुछ और है वो बोलती कुछ और है

बात क्या है क्या किसी से दिल लगा बैठे हो तुम
आजकल रूख़ पर तुम्हारे ताज़गी कुछ और है

चाँदनी फीकी, शिगुफ़्ता गुल भी फीका सा लगे
क्या कहूँ तुमको, तुम्हारी बात ही कुछ और है

लोग जैसा बोलते हैं यार वैसा कुछ नहीं
मामला कुछ हो ये दुनिया देखती कुछ और है

कुल जहाँ बदला, न बदला है मगर उसका मिज़ाज
कल भी वो कुछ और ही था, आज भी कुछ और है

इश्क़ का मारा तेरी समझाइशों का क्या करे
दिलबरी कुछ और है दानिशवरी कुछ और है

यूँ तो कटने को ‘अकेला’ कट ही जाएगी मगर
तुम जो मिल जाओ तो फिर ये ज़िन्दगी कुछ और है
</poem>
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