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14:26, 2 अप्रैल 2013
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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
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<poem>
बात बोले हो बिलकुल खरी
ज़िन्दगी है बड़ी दुख भरी
एक कथरी मयस्सर है बस
वो ही चादर है वो ही दरी
हँस के मैं टालता ही रहा
वक़्त करता रहा मसखरी
जा गवाहों पे कुछ ख़र्च कर
और बेदाग़ हो जा बरी
कैसे बीहड़ में उलझा दिया
अब न फ़रमाइए रहबरी
डिगरियाँ हैं ये किस काम की
मिल न पाए अगर नौकरी
एक सौ का धरा हाथ पे
जब वो देने लगा अफ़सरी
राजनेता को क्या चाहिए
कुर्सी, चमचे, सुरा, सुन्दरी
</poem>