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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
कितने भी हुशियार रहो पर धोखा हो ही जाता है
लाख सम्हालो जो खोना है वो तो खो ही जाता है

व्यस्त बहुत रहता है उसको वक़्त कहाँ है मिलने का
फिर भी जब तब मुझसे अपना रोना रो ही जाता है

अपने सारे दुख तो हँसकर टाल दिया करता हूँ मैं
लेकिन दर्द तुम्हारा मेरी आँख भिगो ही जाता है

ओवर टाइम करते-करते रात बहुत हो जाती है
पापा-पापा रटते-रटते मुन्ना सो ही जाता है

तू मुझको बरबाद अगर कर दे तो कर दे क्या शिकवा
शम्मा के नज़दीक़ पतंगा जलने को ही जाता है

मेरे चेहरे पर फीकापन बोया है तक़लीफ़ों ने
दीवारों का रंग बरसता पानी धो ही जाता है

छोड़ो भी संकोच ‘अकेला’ घाट पे तुम भी आ जाओ
बहती गंगा में हर कोई हाथ तो धो ही जाता है
</poem>
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