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|रचनाकार = फणीश्वर नाथ रेणु
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<poem>
इस ब्लाक के मुख्य प्रवेश-द्वार के समने
 
हर मौसम आकर ठिठक जाता है
 
सड़क के उस पार
 
चुपचाप दोनों हाथ
 
बगल में दबाए
 
साँस रोके
 
ख़ामोश
 
इमली की शाखों पर हवा
 
'ब्लाक' के अन्दर
 
एक ही ऋतु
 
हर 'वार्ड' में बारहों मास
 
हर रात रोती काली बिल्ली
 
हर दिन
 
प्रयोगशाला से बाहर फेंकी हुई
 
रक्तरंजित सुफ़ेद
 
खरगोश की लाश
 
'ईथर' की गंध में
 
ऊंघती ज़िन्दगी
 
रोज़ का यह सवाल, 'कहिए! अब कैसे हैं?'
 
रोज़ का यह जवाब-- ठीक हूँ! सिर्फ़ कमज़ोरी
 
थोड़ी खाँसी और तनिक-सा... यहाँ पर... मीठा-मीठा दर्द!
 
इमर्जेंसी-वार्ड की ट्रालियाँ
 
हड़हड़-भड़भड़ करती
 
आपरेशन थियेटर से निकलती हैं- इमर्जेंसी!
 
सैलाइन और रक्त की
 
बोतलों में क़ैद ज़िन्दगी!
 
-रोग-मुक्त, किन्तु बेहोश काया में
 
बूंद-बूंद टपकती रहती है- इमर्जेंसी!
 
सहसा मुख्य द्वार पर ठिठके हुए मौसम
 
और तमाम चुपचाप हवाएँ
 
एक साथ
 
मुख और प्रसन्न शुभकामना के स्वर- इमर्जेंसी!
 </poem>
'''('धर्मयुग'/ 26 जून, 1977 में पहली बार प्रकाशित)
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