ग़ज़ल
मैं ख़ुद पे एक अजब वार करने वाला था
उनाहगार हूँ इंकार करने वाला था
बचा लिया मुझे मेरे ज़मीर ने वर्ना
मैं अपनी मौत का दीदार करने वाला था
अदीब हूँ मैं मगर भूल ही गया क्या हूँ
मैं अपने लहजे को तलवार करने वाला था
मेरे तबीब मुझे मौत क्यूँ नहीं आती
सवाल अजीब ही बीमार करनी वाला था
मैं बच-बचा के नज़र फेर कर चला आया
मुझे वो दिल में गिरिफ़्तार करने वाला था