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01:22, 1 मई 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=नीरज गोस्वामी
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ये कैदे बा-मशक्क्त जो तूने की अता है
मंज़ूर है मुझे पर, किस जुर्म की सजा है ?
ये रहनुमा किसी के दम पर खड़ा हुआ है
जिसको समझ रहे थे हर मर्ज़ की दवा है
नक्काल पा रहा है तमगे इनाम सारे
असली अदीब देखो ताली बजा रहा है
इस दौर में उसी को सब सरफिरा कहेंगे
जो आँधियों में दीपक थामे हुए खड़ा है
रोटी नहीं हवस है, जिसकी वजह से इंसां
इंसानियत भुला कर वहशी बना हुआ है
मीरा कबीर तुलसी नानक फरीद बुल्ला
गाते सभी है इनको किसने मगर गुना है
आभास हो रहा है हलकी सी रौशनी का
उम्मीद का सितारा धुंधला कहीं उगा है
हालात देश के तुम कहते ख़राब "नीरज "
तुमने सुधारने को बोलो तो क्या किया है ?
</poem>