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10:06, 8 मई 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='अना' क़ासमी
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<poem>
तेरी इन आंखों के इशारे पागल हैं
इन झीलों की मौजें, धारे पागल है
चाँद तो कुहनी मार के अक्सर गुज़रा है
अपनी ही क़िस्मत के सितारे पागल हैं
कमरों से तितली का गुज़र कब होता है
गमलों के ये फूल बेचारे पागल हैं
अक़्लो खि़रद का काम नहीं है साहिल पर
नज़रें घायल और नज़ारे पागल हैं
कोई न कोई पागलपन है सबपे सवार
जितने हैं फ़नकार वो सारे पागल हैं
शेरो सुखन की बात इन्हीं के बस की है
‘अना’ वना जो दर्द के मारे पागल ह
<poem>